________________
निर्व्याजार्जवभूतस्य चरितार्थस्य योगिनः।।
ऐसी दशा है योगी की अंतिम दशा जहां इतनी निष्कपटता हो गयी कि अब बुरे- भले में भी भेद नहीं होता। शभ- अशभ भी अब भिन्न नहीं मालम होते। अब आंखें इतनी स्वच्छ हो गयीं कि काले बादल तो उठते ही नहीं आंखों के आकाश में, सफेद बादल भी नहीं उठते, शुभ्र बादल भी नहीं उठते। अब हाथ में जंजीरें लोहे की तो रहीं ही नहीं, सोने की जंजीरें भी नहीं रहीं। मुक्ति परम हुई
'निष्कपट, सरल और कृतार्थ योगी को कहां स्वच्छंदता!'
अब एक और अदभुत बात कहते हैं आखिर- आखिर में। अब ये सूत्र अंतिम चरण ले रहे हैं और अष्टावक्र आखिरी ऊंचाई भर रहे हैं! अब तक उन्होंने स्वच्छंदता का ही गीत गया, अब कहते हैं, स्वच्छंदता भी कहां! स्वच्छंदता भी तो तभी तक है जब तक हमें दूसरे का और अपने का भेद है. फासला है! मैं और तू का भेद है, तो परतंत्रता और स्वतंत्रता। पर के अधिकार में रहे तो परतंत्रता, स्व के अधिकार में रहे तो स्वतंत्रता। दूसरे का छंद गाया तो परछंद और अपना छंद गुनगुनाया तो स्वच्छंद। लेकिन अब अपना-पराया भी कहां!
"निष्कपट, सरल और कृतार्थ योगी को कहां स्वच्छंदता!'
अब उन्होंने अब तक की धारणा को भी खंडित किया। यही भारत की अनूठी खोज है, नेति-नेति। यह भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं। अंततः सबको निषेध कर देना है, ताकि वही बच रहे जिसका निषेध न हो सके। वही है परम, वही है सत्य।
'कहां स्वच्छंदता, कहां संकोच और कहां तत्व का निश्चय!'
अब तक इसका कितना गीत गाया।'इतितत्व निस्वै: ', 'इति निस्वै: । अब तक कितना गीत गाया इसका कि ऐसा जिसको निश्चय हो गया तत्व का, वही ज्ञानी। और अब कहते हैं
क्य वा तत्वनिश्चय।
अब तो वह बात भी गयी। जब अनिश्चय गया, निश्चय भी गया। अब तो तत्व का निश्चय, यह कहना भी ठीक नहीं, इसमें भी संदेह मालूम पड़ता है। जब कोई कहता है मैं बिलकुल निश्चित हूं तो तुम जानना कि थोड़ा संदेह मौजूद होगा जब कोई कहता है कि मैं बिलकुल दृढ़ हूं, तो उसका मतलब है थोड़ा कंपा हुआ है, नहीं तो क्यों कहेगा! जब तुमसे कोई कहता है, मुझे तुमसे बहुत-बहुत प्रेम है, तो समझना कि कुछ कम होगा नहीं तो बहुत-बहुत क्यों कहत! मुझे प्रेम है, इतने से बात पूरी हो जाती है। बहुत बहुत से कुछ जुड़ता थोड़े ही कुछ घटता है। और जब कोई आदमी बार-बार कहने लगे कि मैं तुमसे निश्चित प्रेम करता हूं, बिलकुल निश्चित प्रेम करता हूं तो संदेह उठना स्वाभाविक है कि यह आदमी इतनी बार क्यों कहता है? एक बार कह दिया, ठीक है; सच तो यह है, हो तो कहना ही नहीं पड़ता। हो तो सारे जीवन से उसकी सुवास उठती है, कहना थोड़े ही पड़ता है। कहना तो वही पड़ता है जो हम जीवन से नहीं कह पाते।
अब तत्व का निश्चय कहा! अनिश्चय गया, निश्चय गया। सब जा रहा है, खयाल रखना। जैसे कोई गौरीशंकर की यात्रा पर चला है और बोझ को कम करना पड़ रहा है। पहले बहुत सामान लेकर