________________
बिखर गयी धीरज की पूंजी सुख-सपने नीलाम हो गये शीशा बिका, किंतु रतन के मंसूबे नाकाम हो गये ऊपर की इस चमक-दमक में किसके लिए दहूं निखरूं अब? दुनिया के इस मोह जलधि में किसके लिए उठं उभरूं अब?
हाट-बाट की भीड़ छट गयी मिला न कोई मेरा गाहक मैं अनचाहा खडा रह गया व्यर्थ गयी सब मेहनत नाहक बीत गयी सज-धज की बेला किसके लिए बनूं संवरूं अब?
देखो, खोलकर आंख देखो। जिसे तुम जीवन कहते हो, बिलकुल व्यर्थ है। जिसे तुम जीवन कहते हो, वहां जरा-भी सच नहीं। आंख भरके देखो, छूटने छाटने की बातें न करो। पागलपन की बातें न करो। होश संभालो, देखो गौर से। जिसने गौर से देखा, व्यर्थ से छूट जाता है। और जिसने गौर से नहीं देखा और वैसे ही छाती पीटता रहा कि हे प्रभु, कब छूटूगा, कब तक प्रतीक्षा, वह छाती ही पीटता रहता है।
__तुम यही जन्मों-जन्मों से कर रहे हो। और अब कब तक करते रहोगे? तुम मुझसे पूछते हो कब तक प्रतीक्षा? मैं तुमसे पूछता ह? कब तक प्रतीक्षा?
आज इतना ही।