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हो अगर पक्का पता चल जाए कि वह अब किसी और का हो गया। तो यह जो मेरे का फैलाव है, यह तो अहंकार का ही रोग है। यह तो घूम-फिरकर अपने को ही प्रेम करना यह दूसरे को प्रेम करना थोड़े ही है ! इसलिए उपनिषद कहते हैं, कहां पति पत्नी को प्रेम करता है, पत्नी के बहाने अपने को ही प्रेम करता है! कहां बाप बेटे को प्रेम करता है, बेटे के बहाने अपने को ही प्रेम करता है !
ऐसा समझो कि जैसे तुम दर्पण रखकर अपनी तस्वीर देखते हो । दर्पण थोड़े ही देखते हो। दर्पण कौन देखता है! लोग कहते हैं कि दर्पण देख रहे थे, कहना नहीं चाहिए। तुम अगर दर्पण में देख रहे हो और कोई पूछे क्या कर रहे हो, तो तुम कहते हो, दर्पण देख रहे थे। बात गलत कह रहे हो । दर्पण को कौन देखता है! दर्पण में तुम अपने को देख रहे थे, दर्पण तो बहाना था। देख तो अपने को रहे थे, दर्पण तो बहाना था । दर्पण को कौन देखता है! किसको पड़ी दर्पण देखने की! दर्पण में अपने को देखते हैं लोग। दर्पण में अपनी छाया दिखायी पड़ती है, अपना प्रतिबिंब |
जिनको तुम कहते हो, मेरे हैं इसलिए प्रेम करता हूं उनसे तुम्हारा कोई प्रेम नहीं है तुम उनकी आंखों में अपने को देख रहे हो । जब तुम्हारी पत्नी तुमसे कहती है तुमसे सुंदर कोई पुरुष नहीं तुमसे बलशाली कोई पुरुष नहीं, तब तुम बड़े प्रसन्न होते हो। तुम इस स्त्री को प्रेम करते हो इस बात के कहने के कारण। क्योंकि इसकी आंखों में वह प्रतिबिंब बना, जो तुम चाहते थे बने। जब कोई किसी स्त्री से यह कहता है कि तू इस जगत की सबसे सुंदर स्त्री है, मैं सोच ही नहीं सकता कि इससे सुंदर भी कोई स्त्री हो सकती है, तब वह प्रफुल्लित होती है। वह कहती है, तुम्हारे प्रेम ने मुझे बड़ा आनंदित किया। तुम्हारे प्रेम से कुछ लेना-देना नहीं है, अपना गुणगान सुनने को अहंकार उत्सुक था।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक औरत के प्रेम में था और एक रात उसने उससे कहा कि तुझसे ज्यादा सुंदर स्त्री पृथ्वी पर कोई दूसरी नहीं । न कभी हुई, न कभी होगी। सभी प्रेमी कह हैं। वह स्त्री बहुत आनंदित हो गयी, उसने कहा, सच नसरुद्दीन ! तो नसरुद्दीन थोड़ा डरा, ईमानदार आदमी, उसने कहा क्षमा कर, यह बात मैं और स्त्रियों से भी पहले कह चुका हूं। और आगे भी औरों से नहीं कहूंगा, इसका वायदा नहीं कर सकता हूं। मगर तभी वह स्त्री उदास हो गयी। औरों से भी कह चुके हो! और आगे भी किसी से कहोगे इसका पक्का नहीं है, कहोगे कि नहीं कहोगे, बात समाप्त हो गयी। बात व्यर्थ हो गयी। अब इसमें कोई मूल्य नहीं रहा।
हम एक-दूसरे की आंखों में अपनी ही तस्वीरें देखते हैं। जो भी हमारी तस्वीर को खूब रंगीन बनाकर बता देता है, उसी को हम कहते हैं प्रेम । जिससे भी तुम्हारे अहंकार की पुष्टि होती है, उसी को तुम कहते हो प्रेम | ममता, अहंकार की सेवा में संलग्न प्रेम। ममता का अर्थ है, मेरा, मम। मैं की छाया। जिन-जिन में दिखायी पड़ती है मेरे मैं की छाया और जिन-जिन के सहारे मेरा मैं खड़ा हो पाता है, जिन-जिन की बैसाखियों से मेरे लंगड़े मैं को चलाने में सुविधा हो जाती है, उन सबसे मेरा प्रेम है। लेकिन यह प्रेम झूठा ।
शोभा तो उसकी है, अष्टावक्र कहते हैं, जिसका प्रेम ममता से मुक्त हुआ, और जिसकी हृदयग्रंथि का भेदन हो गया। टूट ही गयी वह ग्रंथि जहां से राम और काम जुड़ते हैं। काम नीचे गिर गया, राम