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हुआ है। अब जिसको हीरे-जवाहरात मिल गये हों, वह अगर कंकड़-पत्थरों पर मुट्ठी छोड़ दे, तो तुम उदासीन कहोगे! इसमें क्या उदासीन की बात है! कंकड़-पत्थर नहीं छोड़ेगा तो हीरे-जवाहरात किन मुट्ठियों में भरेगा? और हीरे -जवाहरात मिल गये हैं तो कंकड़-पत्थर तो छूट ही जाएंगे। जिसे भीतर की रसधार में डुबकी लग गयी, अब वह बाहर की व्यर्थ बातों में नहीं जाता-वहा रस था भी नहीं। भीतर रस नहीं था, इसलिए बाहर दौड़ता फिरता था। अपना घर नहीं मिला था, इसलिए दूसरे घरों के सामने भीख मांगता फिरता था। अब अपना घर मिल गया, अब क्यों जाए? अब कहां जाना बचा? उदासीन का अर्थ है -विधायक अर्थ-अपने रस में तल्लीन। अपने परम रस में लीन। इसलिए अब बाहर नहीं जाता। इस फर्क को खयाल में लेना।
यही उपवास के साथ उपद्रव हुआ| महावीर ने उपवास किये, जैन मुनि अनशन करते, उपवास नहीं। महावीर के उपवास का अर्थ है, वे ध्यान में ऐसे डूब जाते कि कभी दिन-दिन बीत जाते और उन्हें भोजन की याद न आती। यह एक बात है। यह बड़ी और बात है। भोजन की याद न आए। अपने
भीतर इतने डूब गये कि शरीर ही भूल गया कि शरीर को भूख भी लगती है यह भी भूल गया। यह तो बड़ी अनूठी घटना है। इसका गौरव है। इसको अष्टावक्र कहेंगे, इसकी शोभा है।
फिर एक दूसरा आदमी है जो अनशन किये बैठा है। भोजन नहीं करेगा, क्योंकि आज उपवास है-पर्युषण आ गये व्रत करना है। वह व्रत कर रहा है। व्रत! तो वह रोक रहा है अपने को भोजन नहीं करने से। मन तो होता है, चौके में पहुंच जाए, जाता मंदिर है। मन तो होता है किसी रेस्तरा में घुस जाए, लेकिन कैसे घुसे, और जैनियों की दुकानें आसपास हैं, वे देख रहे हैं क्योंकि वे सब भी अनशन कर रहे हैं कोई छूट न जाए इसमें से। हम कष्ट भोग रहे हैं, तुम कैसे निकल जाओगे! सब एक-दूसरे पर नजर रखे हैं। जाता मंदिर है, जाना होटल है! बैठा मंदिर में है, मन कहीं भोजनालय में संलग्न है, सपने देख रहा है। यह भोजन तो इसने नहीं किया, लेकिन इसका आत्मा के पास वास कहां हो रहा है! भोजन न करने से इसका वास तो चौके के पास हो रहा है। यह तो भोजनालयों के आसपास भटक रहा है। यह तो वैसे अच्छा था, कम-से-कम दो बार भोजन कर लेता था फिर भूल तो जाता था! अब तो भूलता ही नहीं। अब तो चौबीस घंटे रात भी उसे वही खयाल बना रहता है। वही सपना चलता है। राजमहल में निमंत्रण मिल जाता है रात के सपने में। खूब भोजन हो रहा है, सब तरह के व्यंजन तैयार हुए हैं। यह तो भोजन के पास हो गया और इससे तो पहले ही कहीं ज्यादा दूरी थी। यह उपवास नहीं है। यह उपवास का धोखा है। यह अनशन है।
ऐसे ही तुम्हें उदासीन भी मिल जाएंगे, जिन्होंने देखा कि सत्युरुष हुए जिनका बाहर में कोई रस न रहा, तो वे सोचते हैं, हम भी अगर बाहर में रस छोड़ दें तो हम भी उसी संतत्व को उपलब्ध हो जाएंगे। खयाल लेना, बाहर रस छोड़ने से कोई भीतर रस को उपलब्ध नहीं होता, भीतर रस को उपलब्ध हो जाए तो बाहर रस छूटता है। छूटता ही है। छोड़ना नहीं पड़ता, छूटता है। पर संस्कृत में जो शब्द है, वह और भी अदभुत है। जिसका उदासीन अनुवाद किया है, यह शब्द तो अदभुत है ही, लेकिन संस्कृत में जो शब्द है वह तो और भी अदभुत है। शायद हिंदी अनुवाद करनेवालों को डर लगा