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है कमल सहस्रार का। तुमने देखा होगा, जब कोई व्यक्ति ध्यान की गहराई में जाता है, तो उसकी आंखें ऊपर खिंच जाती हैं। अगर तुम ध्यानी की पलक खोलकर देखो तो तुम चकित होओगे, उसकी आंखें ऊपर खिंची हुई हैं, ऊपर चढ़ी हुई हैं। ध्यान की गहराई में आंखें सहस्रार की तरफ खिंच जाती हैं, दिशा ऊपर की तरफ हो गयी। इसे तुम भीतर अनुभव करना, जब कामवासना तुम्हारे भीतर उठेगी और तुम्हारे कामयंत्र में स्फुरण होगा, तो तुम्हारी आंखें भीतर नीचे झुक जाएंगी। भीतर । चाहे बाहर से तुम न भी झुकाओ, लेकिन भीतर से तुम जानते हो, ऊर्जा नीचे की तरफ बहने लगी। आंखों का प्रवाह नीचे की तरफ हो गया। इसे तौलते रहना ।
गांठ है हृदय की। वहीं से नीचे गिरता आदमी, वहीं से ऊपर उठता। प्रेम ही उठाता है और प्रेम ही गिराता है। इसलिए प्रेम बड़ा खतरनाक शब्द है। और जरा भी उसको गलत समझा तो चूके। मैं निरंतर प्रेम की बात करता हूं। प्रेम शब्द का उपयोग करना अंगार से खेलने जैसा है। मैं जिस प्रेम की बात करता हूं बहुत संभावना है तुम वही नहीं समझोगे तुम वही प्रेम समझ लोगे जो तुम समझ सकते हो। मैं जब प्रेम की बात करता हूं, तब प्रार्थना की बात कर रहा हूं। तुम जब प्रेम शब्द सुनोगे, तत्क्षण तुम कामना की और वासना की बात समझ लोगे। तुम अपना प्रेम समझ लोगे। अगर तुम्हारे प्रेम से ही मोक्ष हो सकता था, तब तो फिर मेरे पास आने की कोई जरूरत नहीं थी । वैसा प्रेम तुम कर ही रहे हो। उससे मोक्ष नहीं हुआ है, उससे संसार ही निर्मित हुआ है। उससे तुम जरा भी ऊपर नहीं गये हो, उससे तुम नीचे गिरे हो। उससे तुम भटके हो, वही तो तुम्हारा भटकाव है। लेकिन मेरी बात सुनकर हो सकता है तुम अपने पुराने ढांचे के लिए सहारा खोज लो और तुम सोचो, मैं तुम्हारे प्रेम की बात कर रहा हूं।
तुम एक बात सदा ही स्मरण रखना, मेरे शब्दों को तुम कभी अपनी भाषा में अनुवादित मत करना, अन्यथा चूक हो जाएगी। तुम अपने को जरा अलग ही रखना। और जब भी मैं उन शब्दों का उपयोग करूं जिनके उपयोग करने के तुम भी आदी हो, तो बहुत सावधानी से सुनना क्योंकि भूल होने की बहुत संभावना है। तुम वही अर्थ डाल दोगे जो तुम्हारा अर्थ है। और वहीं चूक हो जाएगी। तुम कुछ सुन लोगे जो नहीं कहा गया था। तुम कुछ समझ लोगे जो प्रयोजन नहीं था। कुछ का कुछ
हो जाएगा। अनर्थ होगा, अर्थ नहीं होगा ।
हृदय की ग्रंथि के नीचे भी एक प्रेम है- पाशविक प्रेम, अंधा प्रेम, वासना, देह का प्रेम प्रेम नाममात्र को है। प्रेम कहना भी नहीं चाहिए। शोषण है एक-दूसरे की देहों का। अपने को भुलाने के उपाय हैं। मूर्च्छा है, मदिरा है। एक प्रेम है, जो हृदय की ग्रंथि के ऊपर है। वहां प्रेम अति कोमल है। वहां प्रेम पराग जैसा है। वहां प्रेम पदार्थ नहीं है, सुगंध जैसा है। सुवास जैसा है। मुट्ठी बाधोगे तो पकड़ में नहीं आएगा । मुट्ठी बांधी तो चूक जाओगे| वहा प्रेम किसी और आयाम में प्रवेश करता है। वहां तुम देह को नहीं चाहते। वहां देह से कुछ प्रयोजन न रहा। वहां मन की चाहत पैदा होती है। और धीरे- धीरे मन की चाहत से भी पार हो जाते हो। प्राणों का प्राणों से मिलन होता है।
शरीर तो अलग- अलग हैं। मन इतने अलग नहीं। और आत्मा तो बिलकुल अलग नहीं है।