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मनुष्य, संसार व परमात्मा का संधिस्थल: हृदयग्रंथि-(प्रवचन-आठवां)
दिनांक 2 फरवरी, 1977; श्री ओशो आश्रम पूना।
सारसूत्र :
निर्मम: शोभते धीर: समलोष्टाश्मकांचनः। सुभिन्नहृदयग्रंथिर्विनिर्धूतरजस्तमः।। 264।। सर्वत्रानवधानस्थ न किचिद्वासना हृदि। मुक्तात्मनो विस्तृप्तस्थ तुलना केन जायते।। 265।। जानन्नपि न जानाति पश्यन्नयि न पश्यति। ब्रुवन्नपि न च ब्रूते कोऽन्यो निर्वासनादवते। 26611 भिमुर्वा भूयतिर्वायि यो निष्काम स शोभते। भावेषु गलित) यस्य शोभनाशोभना मतिः।। 267।। क्य स्वाच्छंदय क्य संकोच: क्य वा तत्त्वविनिश्चयः! निर्व्याजार्जवभूतस्थ चरितार्थस्य योगिनः।। 26811 आत्मविश्रांतितृप्तेन निराशेन गतार्तिना। अंतर्यदनुभूयेत तत्कथं क्रस्ट कथ्यते।। 269।।
निर्मम: शोभते धीर: समलोष्टाश्मकांचन, सुभिन्नहृदयग्रथिर्विनिर्धूतरजस्तमः।।
'जो ममतारहित है, जिसके लिए मिट्टी, पत्थर और सोना समान है, जिसके हृदय की ग्रंथि टूट गयी और जिसका रज, तम धुल गया, वह धीरपुरुष ही शोभता है।'
बहुत सी बातें इस सूत्र में समझने जैसी हैं। पहली बात, 'जिसकी हृदयग्रंथि टूट गयी है..।' हृदय है गांठ, जहां राम और काम बंधे हैं। और जब तक हृदय की गाठ न टूट जाए, राम और