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तो बोलना। जो हुआ उसे होने देना है। पहली बात।
दूसरी बात, तुम जैसे हो वैसे ही बुद्धपुरुषों को या बुद्ध को स्वीकार हो तुम जैसे हो वैसे ही स्वीकार हो। तुम्हें बदलने की कोई चेष्टा भी नहीं है। जो उनके भीतर हआ है वह प्रगट हो रहा है। उस प्रगटीकरण में अगर तुम बदल जाओ, तुम्हारी मर्जी। न बदलो, तुम्हारी मर्जी। तुम बदले तो ठीक, तुम न बदले तो ठीक। बुद्धपुरुष को इससे कुछ भी लेना देना नहीं है कि तुम बदलो ही। ऐसा कोई आग्रह नहीं है।
___तुम्हारी कठिनाई भी मैं समझता हूं। तुमने पूछा है कि हमें दिन-रात क्यों समझाते हैं? वे हमारे तथाता के अस्वीकार को स्वीकार में क्यों बदलना चाहते हैं?
कुछ भी बदलने का भाव नहीं है। इसलिए एक फर्क खयाल रखना, जब कोई साधु, कोई संत तुम्हें बदलने में बहुत उत्सुक हो तो समझ लेना अभी बुद्धत्व का जन्म नहीं हुआ। जिस संत और साधु के पास बदलाहट होने लगे और उसकी कोई उत्सुकता ही न हो तुम्हें बयलने की तो समझना कि बुद्धत्व मौजूद है। जिसकी मौजूदगी में बदलाहट हो।
समझो। सूरज निकला, तो सूरज आकर एक-एक फूल को कहता थोड़े ही कि खिलो, मैं आ गया, सुबह हो गयी। एक-एक फूल की पंखुड़ी पकड़-पकड़कर खोलता थोड़े ही। और कोई फूल न खिले तो सूरज कोई दुखी होकर उदास थोड़े ही बैठ जाता, अपनी किरणों को थोड़े ही सिकोड़ लेता। सुरज तो फैलता, उसकी मौजूदगी में फूल खिलते, सूरज किसी को खिलाता थोड़े ही। और कोई फूल न खिले, तो सूरज कोई हिसाब थोड़े ही रखता कि आज इतने फूल नहीं खिले, क्या मामला है! इनकी कोई शिकायत थोड़े ही करता कहीं। खिल गये, ठीक, नहीं खिले, नहीं ठीक। सच तो यह है, सूरज को इससे कुछ हिसाब नहीं है। लेकिन सूरज की मौजूदगी में फूल खिलते हैं यह बात सच है। बिना सूरज के खिलाए खिलते हैं, यह बात सच है। सूरज की मौजूदगी के बिना नहीं खिलते यह भी बात सच है। सूरज की मौजूदगी में ही खिलते हैं, यह भी बात सच है। फिर भी सूरज खिलाता नहीं। केटलिटिक है, उसकी मौजूदगी से खिल जाते हैं।
अगर बुद्धपुरुष की मौजूदगी में तुम रूपांतरित हो गये हो गये। नहीं हुए नहीं हुए। लेकिन बुद्धपुरुषों को इससे कुछ प्रयोजन नहीं है। और जब वे कुछ कह रहे हैं, चाहे तुम्हें ऐसा लगता हो कि तुम्हें बदलने के लिए कह रहे हैं क्योंकि तुम बदलने में उत्सुक हो वे तुम्हें बदलने के लिए नहीं कह रहे हैं। वे तो वही कह रहे हैं जो उनके भीतर घटा है। जो उनके भीतर हुआ है वह झर रहा है। कठिन है थोड़ा। क्योंकि तुम तो कभी कोई ऐसी बात नहीं कहते जो बिना प्रयोजन के हो। तुम तो जब किसी को बदलना चाहते हो तब कुछ कहते हो। किसी को सलाह देते, तो तुम चाहते हो कि वह मान ले। अगर न माने तो तुम नाराज हो जाते हो। मान ले तो तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिलती है, न माने तो तुम्हारे अहंकार को चोट लगती है -कि मेरी सलाह नहीं मानी, तो अब देख लूंगा। मेरी और सलाह नहीं मानी! यह तुम्हारे अहंकार को बड़ा कठिन हो जाता है। बुद्धपुरुषों को इससे कुछ प्रयोजन नहीं है। जो होता है, होता है। तुम बदल गये तो भी मजा है, तुम न बदले तो भी मजा है। इसमें कहीं