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सजी कली-कुसुमों से डाली मयूरी, मधुबन-मधुबन नाच मयूरी नाच, मगन मन नाच समीरण सौरभ सरसाता घुमड़ घन मधुकण बरसाता मयूरी नाच, मदिर मन नाच मयूरी नाच, मगन मन नाच
तुम नाच सको मयूर जैसेऔर प्रभु के मेघ तो सदा ही घिरे हैं। अषाढ़ तो सदा ही मौजूद है। तुम फुदक सको, तुम पुलकित हो सको, इसकी चेष्टा चल रही है। यहां मैं तुम्हें धार्मिक बनाने में उत्सुक नहीं हूं यहां मैं तुम्हें जीवंत बनाने में उत्सुक हूं और मेरे लिए जीवंतता ही धर्म है। मैं यहां तुम्हें किन्हीं सिद्धातों और शास्त्रों की मान्यता में रूपांतरित करने के लिए आतुर नहीं हां तुम्हें हिंदू मुसलमान, ईसाई, जैन बनाने में मेरी जरा उत्सुकता नहीं है। तुम्हारा यही तो दुर्भाग्य है कि तुम कुछ बनकर बैठ गये हो। तुम्हारी सारी धारणाएं छीन लेने में उत्सुकता है। क्योंकि तुम्हारी धारणाओं के कारण ही तुम इतने बोझिल हो गये हो कि नाच नहीं पाते। मयूर के पैरों में पत्थर बंधे हैं, गले में शास्त्र बंधे हैं, पंडित-पुरोहित मयूर के ऊपर बैठे हैं, मयूर नाचे तो खाक नाचे! तुम्हारी सब धारणाएं, तम्हारे सब सिद्धांत, विश्वास, सब हटा लेने हैं। ताकि केवल जीवन की श्रद्धामात्र तुम्हारी एकमात्र श्रद्धा रहे। और जीवन का मंदिर तुम्हारा एकमात्र मंदिर हो।
रहस्य तो बढ़ेगा। बढ़ता जाए तो ही समझना कि तुम मेरे साथ हो। जहां रहस्य रुकने लगे, अटकने लगे, समझना कि तुमने मेरा साथ छोड़ दिया। तुमने कुछ सिद्धांत बना लिए। तुम रुक गये। तुम राह के नीचे उतरकर किनारे पर तंबू गाड़ लिये और तुमने घर बना लिया मेरे साथ पड़ाव तो बहुत आएंगे, मंजिल कभी नहीं। और हर मंजिल पड़ाव से ज्यादा नहीं है, क्योंकि और आगे है और आगे है यात्रा। बुद्ध ने कहा है, चरैवेति, चरैवेति। चले चलो, चले चलो। अंत कहीं भी नहीं है। सत्य की कोई सीमा नहीं है।
नये का स्वागत करते चलो। रोज-रोज नया सूरज ऊ-गेगा। रोज-रोज नये भावों के स्वाद तुम्हें दूंगा। उसका स्वागत करते चलो।
जिसके स्वागत में नभ ने बरसा दी हैं जोहनियां सभी
और बड़ ने छाव बिछा डाली है वह तू ऊषा मेरी आंखों पर तेरा स्वागत है पत्तों की श्यामता के
द्वीप डुबोते हुए हुस्न-हिना की गंध ज्वार सी