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कर लो, 'तुम' कंठस्थ कर लो तो उपनिषद भी दो कौड़ी के हो गये।
सारा दारोमदार एक बात पर है- तुम हो या वह है! तुम हटो बीच से। राह दो उसे । खाली करो सिंहासन ताकि वह विराजमान हो सके।
यही अर्थ है राबिया का ।
किसी ने राबिया को कहा, मैं अगर अपने जीवन को बदल लूं र पाप को पुण्य में बदल दूं अधर्म को धर्म में बदल दूं दुश्चरित्रता को चरित्र बना र अगर मैं मुस्लिम हो जाऊं, ईमान को पकड़ लूं तो क्या परमात्मा मेरी तरफ झुकेगा? तो राबिया ने कहा, नहीं, बात इससे बिलकुल उल्टी है। अगर परमात्मा तुम्हारी तरफ झुके तो तुम मुस्लिम हो सकते हो तो तुम ईमान ला सकते हो। उसके बिना तुम्हारी तरफ झुके कुछ भी न होगा। तुम्हारे झुकने से कुछ भी न होगा, वही झुके तो ही कुछ होता है। जो होता है, उससे ही होता है।
राबिया का अर्थ यह है, कर्ता तुम नहीं हो, कर्ता वही है। इसलिए जब कोई व्यक्ति वस्तुतः धर्म के जीवन में प्रवेश करता है तो वह ऐसा नहीं कहता कि देखो, मैं धार्मिक हो रहा हूं। वह यह कहता है, तेरी मर्जी प्रभु कि तूने मुझे धार्मिक बना लिया। मेरे किये तो कुछ न होता। मेरे किये तो जो होता, गलत ही होता । मैंने तो कर-करके देख लिया, मेरा सब किया अनकिया हो गया। तूने पुकारा। तेरी मर्जी । तूने प्यास जगाई। तूने खींच लिया।
इसलिए जब कोई प्रभु को उपलब्ध भी होता है तो वह यह नहीं कहता, अपनी पीठ नहीं ठोंकने लगता खुद कि शाबाश! कर दिखाया। जब कोई प्रभु को उपलब्ध होता, उसके चरणों में झुककर धन्यवाद देता है कि मेरे बावजूद भी तूने मुझे खींच लिया| धन्यवाद! 'मेरे बावजूद भी' - इसे स्मरण रखना । भक्त तो, प्रेमी तो, खोजी तो सिर्फ पुकार सकता है, प्रार्थना कर सकता है और प्रतीक्षा कर सकता है, और उसके हाथ में कुछ भी नहीं है। इसलिए तो अष्टावक्र इतना जोर देकर कहते हैं कर्तव्य, यही चिंता का मूल आधार है। तुमने सोचा कि मुझे कुछ करना है करना पड़ेगा, मेरे किये होगा तुम चिंतित हुए चिंतित हुए उद्विग्न हुए। उद्विग्न हुए ज्वरग्रस्त हुए। ज्वरग्रस्त हुए, विक्षिप्त हुए, भटके। दूर से दूर निकल गये। इसलिए मूल बात अष्टावक्र कहते हैं, एक बात छूट कि मैं कर्ता हूं। निमित्तमात्र हूं? साक्षी हूं।
जाये
पूनम बन उतरो ।
भावों की कोमल पाटी पर
शाश्वत रंग भरो।
पूनम बन उतरो ।
आतप से झुलसा तन सरवर झरते ज्वालों के निर्झर