________________
छोटा सा टुकड़ा भी आ जाए तो तुम समझना बहुत है तुम्हें तो थोड़े -बहुत लक्षण मालूम हो जाएं तो बहुत है। तुम इस पागलपन में मत बैठना कि तुम जब पूरा-पूरा पक्का पता लगा लोगे कि यह आदमी बद्ध है, जब पक्की पहचान हो जाएगी और सरकारी सर्टिफिकेट मिल जाएगा, तब तम झकोगे। तो तुम कभी न झुकोगे।
एक बात खयाल रखना कि बुद्ध कभी भी सरकारी संत नहीं रहे हैं। अब तक तो नहीं रहे हैं। बुद्ध कोई विनोबा भावे नहीं हैं, कोई सरकारी संत नहीं हैं। बुद्धत्व तो मौलिक रूप से क्रांति है, विद्रोह है, बगावत है। आमूल। आचूल। कौन प्रमाणपत्र देगा? कोई काशी की पंडितों की सभा प्रमाणपत्र थोड़े ही देगी बुद्ध को! वह तो जिनको दे, समझ लेना कि वह बुद्ध नहीं है। क्योंकि काशी के पंडित और बुद्धों को, वह संभव नहीं है! उनके प्रमाणपत्र तो इसी बात की खबर हैं कि कम-से -कम इतना तय हो गया कि यह आदमी बुद्ध नहीं है, चलो, इससे झंझट मिटी। बुद्धपुरुष तुम्हें पोप की पदवियों पर नहीं मिलेंगे और न शंकराचार्यों की पदवियों पर मिलेंगे। क्योंकि ये तो परंपराएं हैं। और परंपरा में जो आदमी सफल होता है, वह मुर्दा हो तो ही सफल हो पाता है। परंपरा के द्वारा पद पाना सिर्फ मुर्दो के भाग्य में है, जीवंत लोगों के भाग्य में नहीं। यह सौभाग्य है जीवितों का और मुर्दो का दुर्भाग्य!
इसलिए तुम कैसे पहचानोगे? और पूरी पहचान का तुम विचार ही मत करना। क्योंकि तुम, तुम पूरा पहचानोगे तो तुम बुद्ध हो जाओगे। तुम बुद्ध होते तो पहचानने की जरूरत न थी| क्या प्रयोजन था! तुम नहीं हो, इसीलिए तो पहचानने चले हो। इसलिए पूरे –पूरे का खयाल मत करना।
सिमटकर आज बांहों में चलो आकाश तो आया उतरकर एक टुकड़ा चांदनी का पास तो आया
छोटा-सा टुकड़ा चांदनी का तैर आए तुम्हारे पास, तो बहुत धन्यभाग अहोभाग! तुम उतने पर ही भरोसा करना। उसी चांदनी के टुकड़े को पकड़कर अगर बढते रहे, चलते रहे, तो किसी दिन पूरे चांद के भी मालिक हो जाओगे। किसी दिन पूरा आकाश भी तुम्हारा हो जाएगा। तुम्हारा है, लेकिन अभी तुम्हें पहुंचना नहीं आया चलना नहीं आया। अभी तुम घुटने के बल चलते हुए छोटे बच्चे की भांति हो। अभी तुम्हें चलने का अभ्यास करना है।
ठहरते थे जहां पर आंसुओ के काफिले आकर अचानक उन किवाड़ों के किनारे हास तो आया किसी व्यक्ति के पास तुम्हें जीवन के परमहास का थोड़ा-सा भी स्वाद आ जाए।
तो संत उदास नहीं होंगे। बुद्धपुरुष उदास नहीं होंगेजिनको तुम देखते हो मंदिरों मस्जिदों में बैठे गुरु-गंभीर लोग, लंबे चेहरों वाले लोग, बुद्धपुरुष वैसे नहीं होंगे। बुद्धपुरुष तो उत्सव है। बुद्धपुरुष तो ऐसा है जिसमें अस्तित्व के कमल खिल गये। कहां उदासी! कहां लंबे चेहरे! बुद्धपुरुष गंभीर नहीं। बुद्धपुरुष के पास तो तुम्हें एक मृदुहास मिलेगा। हलकी-हलकी हंसी। एक मुस्कुराहट। एक स्मित। एक उत्सव। एक आनंदभाव।
ठहरते थे जहां पर आंसुओ के काफिले आकर