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गीत तो निकलते ही नहीं। यहां तो ओंठ जड़े हुए, सिले हुए पड़े हैं। लोग तो भूल ही गये हैं। उनके प्राणों का गीत पैदा ही नहीं हुआ है। जो गीत लेकर आए थे, गाया नहीं। जो बीज लेकर आए थे, बीज की तरह पड़ा है, अंकुरित नहीं हुआ फूला–फला नहीं।
फिर पांव को थिरकने का राज कौन दे । _ यहां तो नाच लोग भूल ही गये हैं, नृत्य भूल ही गये हैं, उत्सव भूल ही गये हैं। जिस किसी व्यक्ति के पास तुम्हारे पांव में थिरक आने लगे, जिस किसी व्यक्ति के पास तुम्हें नृत्य की नयी भाव-भंगिमाएं प्रगट होने लगें, तुम्हारे भीतर एक नर्तन शुरू हो, समझना कि वहां कुछ हुआ है। ये इशारे हैं, परिभाषाएं नहीं।
रात है सो गयी दुनिया थकन से चूर नींद में भरपूर कुछ क्षणों को जिंदगी की विषमता कटुता हुई है दूर एक-सी आंखें सभी की एक-सी है रैन जागती आंखें उसी की है न जिसको चैन मैं नहीं यह चाहता सोता रहे जग हो सदा ही रैन, चाहता हूं किंतु, कर्मठ-दिवस में भी नींद-सा हो चैन सुनो फिर सेमैं नहीं यह चाहता सोता रहे जग हो सदा ही रैन, चाहता हूं किंतु कर्मठ-दिवस में भी नींद-सा हो चैन
जिस व्यक्ति के कर्म में भी तुम्हें नींद-जैसे चैन की प्रतीति हो; जो चले और फिर भी अनचला मालूम पड़े जो बोले और फिर भी अनबोला मालूम पड़े, जो उठे -बैठे और फिर भी जिसके भीतर कुछ उठता-बैठता न हो; जो सोए भी और तुम देखो भी कि सोया है, और फिर भी तुम जानो कि उसके भीतर कुछ जागा है; जो सोए –सोए जागा हुआ हो, जो जागा-जागा भी ऐसा शांत हो जैसे सोया
है
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चाहता हूं किंतु