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इसी क्षण सब हो गया। सम्यकत्व के क्षण में सब हो जाता है। समता के क्षण में सब हो जाता है। समाधि के क्षण में सब हो जाता है। अब कुछ करने को शेष नहीं रहा है।
किंचित् कृत्य न पश्यति। अब इसे कुछ भी दिखायी नहीं पड़ता कि करने को कुछ बचा।
साक्षी तुम हुए कि अकर्ता हुए या कि अकर्ता हो जाओ, तो साक्षी हो गये। अब ताए सिर्फ आनंद ही आनंद है, करने को कुछ भी न बचा। खयाल करो, जब तक करने को बचा है, तब तक चिंता रहेगी, योजना रहेगी, भय रहेगा। करोगे तो लेकिन सफल होओगे या नहीं? सफल भी हो गये, तो जिस दिशा में चल पड़े थे वह ठीक थी या नहीं थी? सफल होकर भी सफलता मिलेगी? धन पाकर भी सुख होगा, शांति होगी? पद पाकर भी तृप्ति होगी? जहां तक कृत्य है, वहां तक चिंता का जाल है। जहां तक करना है, वहां तक असफलता का डर बना ही रहेगा। और यह भी डर बना रहेगा कि सफल होकर भी कहां सफलता पक्की है! क्योंकि सिकंदर होते, नेपोलियन होते, जीत लेते दुनिया और खाली हाथ जाते! धूल में पड़ी हैं उनकी अर्थियां, जो सिंहासन पर बैठे। तो सिंहासन पर भी बैठकर गिरना तो कब्र में ही पड़ता है। सिंहासन से भी तो आदमी कब्र में ही गिरता है। चाहे सिंहासन पर बैठो, चाहे सड़क की पटरी पर भिखमंगे की तरह बैठो, जब गिरोगे कब में तो एक-से गिरोगे। उमर खैयाम ने कहा है. धूल मिल जाती धूल में| डस्ट अनटू डस्ट। फिर धूल तुम्हारी सम्राट कहलाती थी कि भिखमंगा, इससे क्या फर्क पड़ता है! अंतिम चरण में सब एक हो जाता है।
ज्ञानी यह देखकर कि मृत्यु तो सब लीप –पोत देती है, स्वयं ही लीप-पोत देता है। वह कहता है जब मृत्यु सबको मिटाकर एक-सा कर देगी, तो मैं अपनी ही तरफ से एक-सा हुआ जाता हूं। इस भांति ज्ञानी स्वेच्छा से मर जाता है। उसके लिए करने को कुछ नहीं बचता, इससे यह भांति मत ले लेना मन में कि वह कुछ करता नहीं है। करने को कुछ नहीं बचता, कृत्य उससे जारी रहते हैं। जो स्वाभाविक है, जो नैसर्गिक है। भूख लगती, तो भोजन करता है, प्यास लगती तो पानी पीता है। जो स्वाभाविक निसर्ग से होता है। जिसे करना नहीं पड़ता, अपने से होता है।
जैसे समझो, एक ज्ञानी बैठा है और कोई आदमी किसी को मार रहा है। तो ज्ञानी यह सोचकर नहीं उठता कि मैं इसे बचाऊं, कि मुझे बचाना चाहिए; कि मैं यहां बैठा हूं और यह आदमी मेरे सामने पिट रहा है, तो इस पाप में मैं भागीदार हो रहा हूं,ऐसा चिंतन नहीं करता। अगर पुलक आ गयी सहज, तो उठ आता है, बचा लेता है। पुलक न आयी, तो बैठा रहता है। हुआ, तो हो जाने देता है। न हुआ तो कोई उपाय नहीं है।
इसका यह अर्थ नहीं है कि ज्ञानी नहीं बचाएगा। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि ज्ञानी बचाएगा ही। ज्ञानी के संबंध में कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। ज्ञानी सहज पुलक से जीता है। यही तो अष्टावक्र बार-बार कहते हैं, ज्ञानी स्व-स्फूर्ति से जीता है। आएगी स्फूर्ति, तो हो जाएगा। नहीं आएगी स्फूर्ति, तो नहीं होगा। अब स्फूर्ति का जिम्मा ज्ञानी पर नहीं है, उस परम विराट पर है जिसके चरणों में ज्ञानी ने अपने को छोड़ दिया। अब वह जो चाहे। बना ले निमित्त, ठीक। न बनाना चाहे निमित्त,