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स्वच्छंद। जो ना कुछ है, वही स्वच्छंद हो सकता है, जिसको कुछ होना है वह स्वच्छंद नहीं हो सकता। उसको तो नियम बनाकर चलना पड़ेगा। उसको तो मर्यादा बांधनी पड़ेगी। जो प्रतिष्ठा चाहता है, समादर चाहता है, पुण्य चाहता है, स्वर्ग चाहता है, उसे तो मर्यादा बांधकर चलनी पड़ेगी। जो ना कुछ है और ना-कुछ होने से राजी है, वही स्वच्छंद हो सकता है। शून्य ही स्वच्छंद हो सकता है। फिर दवंदवरहित। और जो स्वच्छंद है, वही दवंदवरहित हो सकता है। जब तक तुम्हारे मन में ऐसा हो जाये और ऐसा न हो, इस तरह का विभाजन रहेगा, दवंदव भी रहेगा। जैसा होता है, वैसा ही ठीक है, फिर कोई दवंदव न रहा। और जो दवंदवरहित हो गया, वही संशयरहित है। जब दवंदव ही न रहा, तो संशय क्या! जीवन के प्रति तब परम स्वीकार है, परम श्रद्धा है। और जो संशयरहित है, वही आसक्तिरहित हो पाता है। जब आस्था जीवन के प्रति परम हो गयी, तो हम आसक्ति नहीं बांधते। हम यह नहीं कहते जो मेरे पास है उसे रोक लूं पता नहीं कल हो या न हो। जब अस्तित्व पर परमश्रद्धा है, तो जिसने आज दिया, कल भी देगा, परसों भी देगा। और नहीं देगा, तो शायद नहीं देना ही उचित होगा। तो नहीं देगा। और जो आसक्तिरहित है, वही अकेला है। वही केवल, एकांत का अनुभव कर पाता है। और जो अकेला है, वही है बुद्धत्व को उपलब्ध
इसमें श्रृंखला है। स्वच्छंद, अकिंचन, वंद्वरहित, संशयरहित, आसक्तिरहित, एकाकी, बुद्धपुरुष, इसमें एक श्रृंखला है। एक कम है। सीढ़ी के सोपान हैं।
और वही सब भावों में रमण करता है। समस्तता उसकी है, परा आकाश उसका है। उसके लिए कोई सीमा नहीं है। कोई बंधन नहीं है। असीम उसका है, अनंत उसका है, शाश्वत उसका है। लेकिन पहले इस असीम की घोषणा स्वयं के भीतर करनी जरूरी है।
इन सूत्रों पर खूब मनन करना। मनन ही नहीं, ध्यान करना। इनका थोड़ा स्वाद लेने की कोशिश करना। क्योंकि ये शब्द ही नहीं हैं कि तुमने समझ लिये बात पूरी हो गयी, इनके भीतर बहुत कुछ
पा है। शब्द तो राख जैसा है। उसे झाड़ना तो भीतर अंगारा मिलेगा। वही अंगारे में अर्थ है, उसी अंगारे में अर्थ है।
एक-एक सूत्र ऐसा बहुमूल्य है कि सारे संसार की संपदा भी एक-एक सूत्र को पाने के लिए देनी पड़े तो भी हमने मूल्य चुकाया ऐसा नहीं कहा जा सकता है। अमूल्य है।
आज इतना ही।