________________
अभी कुछ और बढ़ने दे पलक पर इस समुंदर को तभी तो मोतियों का और ज्यादा दाम आएगा
अगर तुमने थोड़ा साहस रखा, धैर्य रखा और देखते ही चले गये, देखते ही चले गये, तो तुम धीरे-धीरे पाओगे, छोटे -छोटे झरोखे आने लगे। कभी-कभी विचार नहीं होता। एक क्षण को सपाट शून्य हो जाता है। और उसी शून्य में झरता है अमृत। उसी शून्य में तृप्ति है। उसी शून्य में प्यास नहीं होती, तुम परम तृप्त होते हो। संतुष्ट। एक गहन परितोष, आनंद, एक अपूर्व रस की धार बहने लगती है।
ऐसा पहले तो शुरू-शुरू होगा, बूंद-बूंद आएगी रस की धार, बिंदु-बिंदु परमात्मा उतरेगा। फिर एक दिन सिंधु की भांति भी उतरता है। तुम जैसे -जैसे राजी होने लगे, पात्र जैसे-जैसे तैयार होने लगा, वैसे-वैसे ज्यादा-ज्यादा रस की धार बहने लगती है।
मन से तो कोई कभी तृप्त नहीं हुआ है। जो हुए हैं तृप्त, मन के पार जाकर हुए हैं। ध्यान से तृप्ति है, मन से अतृप्ति है। ऐसा कहो, मन यानी अतृप्ति, प्यास, असंतोष। ध्यान यानी तृप्ति, संतृप्ति, परितोष।
दूसरा प्रश्न :
आपने कहा कि आप न भाषाशास्त्री हैं, न अर्थशास्त्री हैं, न व्यवस्थाशास्त्री हैं। संभवत: आप कहना चाहेंगे कि आप विधिशास्त्री, समाजशास्त्री और राजनीति-शास्त्री भी नहीं हैं। तो क्या ये सब विषय परम ज्ञान में समाहित नहीं हैं? मुझे तो लगता है आप सब कुछ हैं।
परम ज्ञान का अर्थ होता है, परम अज्ञान। परम ज्ञान में कुछ भी समाहित नहीं है। सब छूट गया। सब जाना हुआ व्यर्थ मालूम होने लगा सिर्फ जाननेवाला बचा। परम ज्ञान का अर्थ होता है, सिर्फ जाननेवाला बचा। जानी गयी बातें सब गयीं। विषय गये। सिर्फ साक्षी बचा। परम ज्ञान का संबंध ज्ञेय से नहीं है, ज्ञाता से है।
तो परमज्ञान में राजनीति तो है ही नहीं, समाजशास्त्र और विधिशास्त्र तो हैं ही नहीं। परम ज्ञान में तो धर्मशास्त्र भी नहीं है। परम ज्ञान में तो अध्यात्मशास्त्र भी नहीं है। परम ज्ञान में तो दर्शनशास्त्र भी नहीं है। परम ज्ञान में तो कुछ भी नहीं है। परम ज्ञान तो महाशून्य का नाम है। परम ज्ञान यानी परम अज्ञान। उस घड़ी तुम कुछ भी नहीं जानते। बस जाननेवाला ही शेष रह गया अपनी परमशुद्धि में। क्योंकि जो भी तुम जानते हो, वह तुम्हारे जाननेवाले को अशुद्ध करता है। विकृति होती