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है। मिलावट हो जाती है।
चेतना के स्वभाव को समझो।
चेतना का स्वभाव है, चेतना जो भी जानती है उसी का रूप ले लेती है। उसी का आकार ले लेती है। तदाकार हो जाती है। जैसे, जब तुमने गुलाब का फूल देखा तो तुम्हारी चेतना गुलाब का फूल बन जाती है, उसका रूप ले लेती है। नहीं तो तुम देख कैसे पाओगे गुलाब के फूल को? गुलाब का फूल तो बाहर है, भीतर तो है नहीं; आंख से गुलाब के फूल की तस्वीर जाती। तस्वीर भी नहीं जाती अगर तुम वैज्ञानिक से पूछो, आंख के जानकार से पूछो, तो तस्वीर भी नहीं जाती। क्योंकि आंख पर तस्वीर बनती है जरूर, पर आंख के पीछे तो सिर्फ स्नायुओं का जाल है, उनसे तस्वीर जा नहीं सकती। स्नायुओं से तो कुछ रासायनिक प्रक्रियाएं जाती हैं। रासायनिक प्रक्रियाएं जाकर तुम्हारी चेतना में पुन: किसी चीज को जन्म देती हैं। वहां तुम गुलाब का फूल देखते हो तो तुम्हारी चेतना ही गुलाब के फूल का आकार लेती। इसलिए तो गुलाब के फूल को देखते -देखते तुम ऐसे मग्न हो जाते हो, ऐसी सुवास से भर जाते हो। तुम गुलाब के फूल हो गये। कृष्णमूर्ति बार-बार कहते हैं, 'द आब्जर्वर इज द आब्जर्द।' वह जो अवलोकन कर रहा है, वह अवलोकित है।
जब तुम गुलाब के फूल को देखते हो तो गुलाब का फूल तो बाहर है, उसे तो तुम देख ही नहीं सकते, तुम बाहर गये कहां? तुम भीतर हो, गुलाब का फूल बाहर है। लेकिन तुम्हारे भीतर एक गुलाब का फूल आकृति लेता है।
इसलिए सुंदर को देखो, तो तुम सुंदर हो जाते हो, असुंदर को देखो तो तुम असुंदर हो जाते हो। बुरे को देखो तो बुरे हो जाते हो, शुभ को देखो तो शुभ हो जाते हो। इसलिए संत के पास अगर तुम बैठे, तो तुम्हारे भीतर भी संतत्व आकार लेता है। दुष्ट के पास बैठे तो दुष्टत्व आकार लेता है। हत्यारे के पास बैठे, तो तुम्हारे भीतर हत्या के विचार उठने लगेंगे। तुम्हें बहुत बार इसका पता भी चलता है, लेकिन तुम कभी बहुत ठीक-ठीक विमर्श नहीं कर पाते। किसी आदमी के पास जाते हो और बड़े बुरे विचार उठते हैं। और किसी आदमी के पास जाते हो, बड़े शुभ विचारों का जन्म उठता है। किसी के पास बैठकर परमशांति का अनुभव होता है, और किसी के पास बैठकर बड़ी अशांति अनुभव होने लगती है। किसी से बचने का मन होता है, किसी को आलिंगन करने का मन होता है।
क्यों? तुम्हारे भीतर, जो भी तुम बाहर देखते हो उसके अनुकूल आकृति निर्मित होती है। तुम जो भी देखते हो, उसी के रूप में तुम ढल जाते हो। यही उपाय है देखने का, और कोई उपाय ही नहीं है। तब इसका अर्थ यह हुआ कि परम ज्ञान का तो एक ही अर्थ हो सकता है कि अब तुम किसी के आकार में नहीं ढलते। न गोबर का ढेर और न गुलाब का फूल। तुम दोनों से मुक्त हुए शुभ-अशुभ,
असुंदर, सबसे मुक्त हुए अब तुम अपने रूप में हो, स्वाकार। परम शान का अर्थ होता है, अब तुम स्व-भाव में, स्व-आकार में, स्वच्छंद, स्वयं के गीत को उपलब्ध। अब किसी चीज का आकार नहीं ले रहे हो। गुलाब का आकार था, वह भी उधार था। चट्टान का आकार था, वह भी उधार था। जो भी देखा था अब तक, वह सब उधार था। एक चीज तुम पर आरोपित हो गयी थी। अब तुम किसी