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फिर भी मेरा मन प्यासा।'
आंखों के रोने से मन के तृप्त होने का कोई संबंध ही नहीं है। आंखों के आंसुओ से थोड़े ही मन की तप्ति का कुछ लेना-देना है, कि तुम कितने रोए, उस मात्रा में तप्ति हो जाएगी। रोना-धोना बंद करो। रो तो बहुत लिये इस रोने से तो मन की ही गति बढ़ती है। क्योंकि रो-रोकर तुम यही कहते हो कि अब तक नहीं मिला, कब मिलेगा? अब तक नहीं आयी मंजिल पास, कब आएगी? रो -रोकर तुम कहते क्या हो? रो-रोकर तुम समझाने की कोशिश कर रहे हो अस्तित्व को कि देखो मैं कितना रो रहा हूं? अब तो कृपा करो। लेकिन तुम जो मांग रहे हो, वह हो नहीं सकता। अस्तित्व के पास भी कोई उपाय नहीं है।
कंठ से मृदुगान आकर ओंठ तक एक सिसकी प्राय होकर रह गये दर्द से असहाय होकर रह गये हम बड़े निरुपाय होकर रह गये फिर वही नासूर उभरे वक्त के एक बेबस हाय होकर रह गये हाट खुशियों की लगायी थी यहां अश्रु के व्यवसाय होकर रह गये पग पहुंचते ही प्रणय सोपान पर स्वप्न सब कृशकाय होकर रह गये
इस जीवन में योजनाएं तो हम बनाते हैं, लेकिन कौन-सी योजना पूरी होती है? कब कौन सिकंदर जीत पाता है? कब कौन पहुंच पाता है? सपने हम सब संजोते हैं
हाट खुशियों की लगायी थी यहां
अश्रु के व्यवसाय होकर रह गये करते कुछ हैं, होता कुछ है। तुमने तो मांगी तृप्ति थी, आंखें आसुएं बन गयीं। ठीक है, यही होगा। क्योंकि जिस दिशा में तुम मांग रहे हो, उस दिशा में मिलन नहीं है। भीतर चलो।
मन का अर्थ होता है, बाहर की यात्रा। बहिर्यात्रा। मन का अर्थ होता है, कहीं और खोज रहे हैं। अ-मन का अर्थ होता है, अब कहीं और नहीं खोज रहे, अपने भीतर झांक रहे हैं। अब वहीं बैठे हैं जहां अस्तित्व स्वयं का है। अब स्वयं के केंद्र पर ठहरे हैं, अकंप। जब तक ऐसा न होगा, तब तक कंठ से जो -गान उठेंगे वे भी ओंठ तक आते-आते सिसकियां हो जाएंगे
कंठ से मृदुगान आकर ओंठ तक एक सिसकी प्राय होकर रह गये