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पशु-पक्षी इस संसार में क्लोरोफाम की अवस्था में हैं, बुद्धपुरुष जाग्रत अवस्था में और हम आदमी बीच में न तो ठीक से जागे हैं, न ठीक से सोये हैं। इसलिए मनुष्य बड़ी चिंता में है। चिंता का एक ही अर्थ होता है, तनाव। एक खिंचाव पीछे की तरफ, एक खिंचाव आगे की तरफ। पीछे पशु -पक्षी पुकार रहे हैं कि लौट आओ। छोड़ दिया घर अपना, बड़ा सुख था यहां। फिर सो जाओ। इसलिए तो आदमी शराब पीता है कि फिर सो जाये।
शराब का आकर्षण इसीलिए है कि शराब एकमात्र उपाय है आदमी के पास कि फिर पशु-पक्षी हो जाये। और तो कोई उपाय नहीं है। कैसे बेहोश हो जायें! इसलिए हम बेहोश होने की कई तरकीबें खोजते हैं। शराब हो, सेक्स हो, सिनेमा हो, जहां भी हम अपने को भूल पाते हैं थोड़ी देर को, हम वहां जाकर बड़ा मनोरंजन अनुभव करते हैं-विस्मरण में। लेकिन सब एक तरह की शराब है।
तो पीछे प्रकृति खींच रही है कि तुम क्यों परेशान हो गये? आदमी, तू व्यर्थ परेशान है, लौट आ। यहां सब सुंदर है। इसीलिए तो तुम कभी जब समुद्र किनारे जाते हो, सुंदर लगता। हिमालय की शुभ्र चोटियों को देखते बर्फ से ढंका हुआ सुंदर लगता है। वृक्षों की हरियाली भी बड़ी निकट खींचती मालूम पड़ती है। पशु-पक्षियों का जीवन गहन आकर्षण रखता। लेकिन जा भी नहीं सकते पीछे। शराब पीकर भी कितनी देर भूलोगे? फिर-फिर होश आ जाता है। होश आ चुका है।
फिर एक और आकर्षण है, बुद्धपुरुष आ जाते हैं। महावीर, कृष्ण, कबीर, क्राइस्ट तुम्हारे बीच से गुजर जाते हैं। उनकी मौजूदगी एक और अपूर्व प्यास को जगाती कि ऐसे ही हम कब हो जायें? यह बड़ी दूसरी पुकार है। है प्रकृति की ही पुकार, लेकिन अब मूर्छा की तरफ से नहीं, अमूर्छा की तरफ से।
और जब तक आदमी बीच में है तब तक संकट में है। तब तक त्रिशंकु की तरह है-न जमीन पर न आकाश में, अटका बीच में। दोनों तरफ खींचा जा रहा, तोड़ा-मरोड़ा जा रहा, खंड-खंड हो रहा, विक्षिप्त हुआ जा रहा, विभक्त। या तो पीछे गिर जाये, जो हो नहीं सकता, या आगे उठ जाये, जो हो सकता है। लेकिन आगे उठना कठिन है। असंभव नहीं, कठिन है। पीछे गिरना सरल है, लेकिन असंभव है। फर्क समझ लेना। फिर से पशु बन जाना सरल है लेकिन असंभव है। सरल इसलिए कि हम पशु रहे हैं पहले र वह हमारी आदतों का हिस्सा है। हमारे अचेतन में वे आदतें अब भी पड़ी हैं। जब तुम क्रोध में आगबबूला हो जाते हो तो पशु बन जाते हो। सरल है क्रोध करना, लेकिन कितनी देर रहोगे? फिर क्रोध के बाहर तो आना ही पड़ेगा। कोई सतत तो क्रोध में नहीं रह सकता। काम में उतर जाना सरल तो है लेकिन कामवासना में जो विस्मरण आता है क्षण भर को, वह कितनी देर का रहेगा? वह क्षणभंगुर है। बबूले की तरह आया, गया, फूटा। फिर तुम वापिस अपने जगह खडे हो पहले से भी जीर्ण-जर्जर, पहले से भी टूटे-फूटे, पहले से भी ज्यादा विषादग्रस्त। ऐसा कौन आदमी होगा जिसको कामसंभोग के बाद पश्चात्ताप नहीं होता है? ऐसा कौन आदमी होगा जिसको क्रोध करने के बाद पश्चात्ताप नहीं होता है कि यह मैंने क्या किया! ऐसा कौन आदमी होगा जो क्रोध करके भी यह समझाने की लोगों को कोशिश नहीं करता है कि मैंने क्रोध नहीं किया।