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भक्त कहा, मैं तुझमें डुबकी लगाना चाहता। ज्ञानी कहता है, मैं अपने में डुबकी लगाना चाहता । दोनों ही एक ही जगह पहुंच जाते हैं। क्योंकि अंतिम अर्थों में जो तुम्हारा आतरिक केंद्र है वही परमात्मा है । भाषा का भेद है और विधि का भेद है। यात्रा की दिशा अलग- अलग होती है, मंजिल एक है। तो दो में से तुम कुछ एक काम कर लो। या तो भक्त बनना है तो भक्त बन जाओ, फिर ज्ञानियों की बकवास छोड़ दो। फिर ज्ञानी जो कहते हैं, सब बकवास है। और अगर शनि । के ही मार्ग से चलना हो तो फिर भक्ति की बातों में मत पड़ना, नहीं तो तुम बडी उलझन में पड जाओगे। ज्ञानी कहता है मोक्ष और भक्त कहता है, प्रभु, तेरे बंधन बड़े प्यारे हैं। ज्ञानी कहता है मुक्त होना है और भक्त कहता है तुझसे बंधना है !
इन फर्कों को समझ लेना । ज्ञानी तो एक तरह का तलाक दे रहा है अस्तित्व को, और भक्त एक तरह का विवाह रचा रहा है। हम ब्याह चले अविनाशी ! वह तो भक्त जो कहता है कि यह तो विवाह की तैयारी हो गई। अब हम विवाह बना रहे हैं। भक्त कहता है.
मैं तुम्हारे मन - सुमन में प्रीति बन महकूं
चू पडूं अंजलि -सरों में लाजकलित मधुकरों में
आज अपनापन डुबो दूं सुरभिचर्चित निर्झरों में मैं तुम्हारे दृग्गगन में स्वप्न बन महकूं प्रीति बन महकूं
गुनगुनाऊं सप्त स्वर में रागरजित मीड़ कर में कभी आरोह में गमकूं कभी अवरोह के स्वर में मैं तुम्हारे छंद - वन में गीत बन चहकूं प्रीति बन महकूं
वचन तोडू संवरण के, मौन के अंतःकरण के स्पर्श के संकेत से ही बज उठे नूपुर चरण के
मैं तुम्हारे प्रणयप्रण में प्राण बन दहकूं प्रीति बन महकूं
मैं तुम्हारे मन - सुमन में प्रीति बन महकूं
भक्त तो कहता है, प्रभु में डूब जाऊं ! तुम्हारी आंखों में सपना बनकर तैरूं । मुक्ति की यहां कोई बात नहीं है। मुक्ति भक्त की भाषा नहीं है । हजार-हजार नित नूतन बंधन तुम बांधो। तुम मुझे बांधते रहो। मुझे उपेक्षित छोड़ मत देना एक किनारे । भूल मत जाना। विस्मरण मत कर देना । तुम राग के नये-नये जाल मुझ पर फैलाते रहो। तुम प्रीति के नये-नये उन्मेष मुझमें उठाते रहो। ऐसा
कि राह के किनारे मुझे भूल जाओ। तुम्हारे लिए बहुत हैं मेरे लिए तुम एक अकेले हो। मैं तुम्हारे इस आनंद - उत्सव में सम्मिलित रहूं भागीदार रहूं।