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कल जिस ठौर खड़ी थी दुनिया आज नहीं उस ठांव है प्रतिपल सब भागा जा रहा है, बदला जा रहा है। जिस आंगन थी धुप सुबह उस अपान में अब छांव है
जहां सफलता थी वहां असफलता के आंसू। जहां मरण का रुदन था, वहां अब उत्सव है, विवाह हो रहा है, मंडप सजे हैं।
प्रतिपल नूतन जन्म यहां पर प्रतिपल नूतन मृत्यु है
यहां तो प्रतिपल मौत घट रही है, प्रतिपल जीवन घट रहा है। बड़ी भागदौड़ है। पूप-छांव का बड़ा खेल है।
देख आंख मलते -मलते ही, बदल गया सब गांव है तुम जरा देखो तो, आंख मलते ही मलते सब बदला जा रहा है।
इस बदलाहट को, इस रूपांतरण को हम कहते हैं लीला, खेल। इसे गंभीरता से लिया तो उलझे। इसे गंभीरता से लिया तो फंसे। गंभीरता से लिया तो गलफास हो जाती है। और गंभीरता से न लिया खेल-खेल में लिया, हंस-हंसकर लिया, बात बदल गई। तुम बाहर हो गये।
रूप नदी-तट तू क्या अपना मुखड़ा मल-मल धो रही है न दूसरी बार नहाना संभव बहती धार में
हेराक्लतु ने कहा न? दुबारा एक ही नदी में नहीं उतरा जा सकता। यहां कोई भी चीज बारा नहीं मिलती। जो गया सो गया, फिर नहीं लौटता। जो आया वह भी जाने की तैयारी कर रहा है। फूल खिल भी नहीं पाता कि कुम्हलाना शुरू हो जाता है। यहां तुम सुख-दुख के हिसाब मत लगाओ। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
कोई मोती गूंथ सुहागन तू अपने गलहार में मगर विदेशी रूप न बंधनेवाला है सिंगार में।
यहां कुछ भी बंध नहीं पाता। कुछ भी थिर नहीं हो पाता। इस अथिर लहरों के जाल को हमने लीला कहा है। लीला का इतना ही अर्थ है, गंभीरता से न लेना। खेल है।
अगर लीला समझो तो द्रष्टा हो सकोगे। अगर गंभीरता से लिया तो कर्ता हो जाओगे। कर्ता हुए कि दुख में पड़े, सुख में पड़े, भोक्ता हुए। कर्ता हुए कि अहंकार की खोज ने तुम्हें घेरा जाल शुरू हुआ| फंसे। कर्ता न रहे, सिर्फ देखा, सिर्फ देखते रहे. देखते रहे; कुछ भी भाव न जोड़ा अच्छे बुरे का, शुभ का, अशुभ का, पक्ष-विपक्ष का, ऐसा हो, ऐसा न हो-ऐसा कुछ भी भाव मन में संगृहीत न किया, बस देखते रहे, जैसे अपना कुछ लेना-देना नहीं। निरपेक्ष! तटस्थ! वहीं से सूत्र मिल जाता।
वहीं से तुम भंग कीड़े के पीछे बंधे हुए रेशम के धागे को पकड़ लेते हो और वहीं से तुम एक दिम उस परम ज्योति के दवार तक पहुंच जाते जिसका नाम परमात्मा है।
आज इतना ही।