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मुर्दगी पाओगे। मरघट की शांति पाओगे, फूलों की, उपवन की शांति नहीं, मरघट की। क्यों? क्योंकि कुछ तो शक्ति क्रोध में लगी थी, कुछ क्रोध को दबाने में लग गई। कुछ घृणा में लगी थी, कुछ घृणा को दबाने में लग गई। कुछ लोभ में लगी थी, कुछ लोभ को दबाने में लग गई।
सांसारिक आदमी को भी तुम थोड़ा प्रफुल्ल पाओगे उतना भी तुम अपने महात्मा को न पाओगे। यह और मुश्किल में पड़ गया है। होना तो उल्टा चाहिए था। और जो शक्ति क्रोध में लग गई, क्रोध को दबाने में, लोभ में, लोभ को दबाने में, मोह में, मोह को दबाने में, काम में, काम को दबाने में सारी शक्ति नियोजित हो गई। इसके पास प्रेम के लिए जगह नहीं बचती। तुम्हारे महात्माओं के जीवन में तुम प्रेम न पाओगे। तुम्हारे महात्माओं के जीवन में तुम करुणा न पाओगे। तुम्हारे महात्माओं के जीवन में तुम कोई सृजनात्मकता न पाओगे। उनसे कुछ निर्मित नहीं होता। न एक सुंदर गीत रचा जाता है, न एक मूर्ति बनती है, न एक चित्र बनता है। उनसे कुछ रचा नहीं जाता। बस वे मुर्दे की तरह बैठे हैं। उनका कुल काम इतना है कि वे दबाकर बैठे हैं, क्रोध को, लोभ को, मोह को। मगर यह जीवन अकारथ है उनका। इसमें कुछ भी सौंदर्य नहीं है। इसमें कोई भी गरिमा और प्रसाद नहीं
क्रांति का नाम तभी दिया जा सकता है तुम्हारे जीवन-रूपांतरण को, जब गलत में नियोजित शक्ति अपने आप शुभ की ओर प्रवाहित होने लगे। जो तुमने शैतान के चरणों में चढ़ाये थे फूल, वे परमात्मा के चरणों में गिरने लगे।
ज्ञानादगलितकर्मा यो लोकदृष्टधापि कर्मकृत्।
फिर ऐसा ज्ञानी चाहे औरों की दृष्टि में संसार में खड़ा हुआ ही क्यों न दिखाई पड़े इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। अपनी तरफ से वह संसार के बाहर हो गया, वही असली बात है। लोकदृष्टि में वह सामान्य ही दिखाई पड़ेगा।
नान्नोत्यवसरं कर्तुं वस्तुमेव न किंचन।
ऐसे व्यक्ति को करने का मौका ही नहीं बचा। और न यह कहने का मौका बचा कि मैंने यह किया, मैंने यह किया। अवसर ही नहीं है। ऐसे व्यक्ति को तो एक बात समझ में आ गई कि बोध से अपने आप चीजें होती हैं, करनेवाला कौन है?
इसको अगर तुम भक्त की भाषा में कहो तो कहो, भगवान के दवारा अपने आप होती हैं। भगवान का कोई और अर्थ है भी नहीं; इस संपूर्ण जगत की जो इकट्ठी प्रशा है, इस संपूर्ण जगत का जो इकट्ठा बुद्धत्व है, इस संपूर्ण जगत का जो इकट्ठा बोध है, उसी का नाम तो भगवान है। भगवान का कोई और अर्थ नहीं है।
भगवान से होता, भक्त कहता। ज्ञानी कहता, बोध से होता। मैं कर्ता नहीं। एक बात में दोनों राजी हैं-मैं करनेवाला नहीं!
अब अगर तुम कहो, मैंने तप किया, तो चूक गये। तो उसका अर्थ हुआ कि अभी शान के द्वारा कर्म गलित नहीं हुआ| कर्म के दवारा ही कर्म की छाती पर चढ़कर बैठ गये। कर्ता तुम अभी भी हो।