________________
सार नहीं है।
कमजोरियों को मत छिपाना। बुढ़ापे में अक्सर हो जाता है; वीर्य –ऊर्जा समाप्त हुई लोग ब्रह्मचर्य की बातें करने लगते हैं। जवानों को मूढ़ कहने लगते हैं। अब जो स्वयं नहीं कर सकते उसको कम से कम गाली तो देने का मजा ले सकते हैं। एक गहरी ईर्ष्या पकड़ जाती है। इस ईर्ष्या के कारण जो मंतव्य दिये जाते हैं उनका कोई भी मूल्य नहीं है।
मंदबुद्धि का अर्थ होता है, मंदमति का अर्थ होता है, अवसर बीत जाता है तब अकल आती है। जब वर्षा बीत गई तब उन्हें खयाल आता है कि अरे, वर्षा बीत गई, फसल बो देनी थी। लेकिन अब फसल नहीं बोयी जा सकती, अब समय जा चुका।
मंदबुद्धि का एक ही अर्थ होता है, जब क्षण मौजूद हो वहां तुम मौजूद नहीं। प्रखर बुद्धि का एक ही अर्थ होता है, जब चुनौती मौजूद हो तब तुम मौजूद हो उस चुनौती को अंगीकार करने को, उस चुनौती के लिए प्रति उत्तर देने को तुम्हारा प्राण तत्पर है। तुम पूरे –पूरे मौजूद हो| बुद्धिमानी एक तरह की उपस्थिति है-प्रेजेन्स आफ माइंड। चैतन्य की एक उपस्थिति है।
'मंदमति उस तत्व को सुनकर भी मूढ़ता को नहीं छोड़ता है।'
तो मंदमति सुनता हुआ मालूम पड़ता है। ऐसा लगता है, सुन भी लिया उसने। यह भी हो सकता है, तोते की तरह रट भी ले, लेकिन फिर भी क्रांति नहीं घटती है। और जब तक क्रांति न घटे तब तक जानना, सुना हुआ सुना हुआ नहीं है सुने हुए का कोई मूल्य नहीं है तुम लाख सुनते रहो, क्या होगा? कानों में थोड़ी-सी आवाज के गूंजने से थोडे ही कोई क्रांति होती है! फिर आवाज किसकी थी इससे भी फर्क नहीं पड़ता।
बुद्धपुरुषों को तुमने सुना है और कुछ भी नहीं हुआ जिनों के पास से तुम गुजरे हो और कुछ भी नहीं हुआ| परमहंसों की हवा में तुम उठे-बैठे हो और कुछ भी नहीं हुआ| तुम्हें कुछ छूता ही नहीं। क्योंकि जहां से छू सकता है वहां तो तुम मौजूद नहीं हो। वहां तो बुद्धि बहुत मंद है। वहां तो तुम इतने शिथिल हो, जिसका हिसाब नहीं।
इसके परिणाम होते हैं। इसका एक परिणाम यह होता है कि जब क्राइस्ट मौजूद होते हैं तो लोग सुनते नहीं, जब मर जाते हैं तब पूजा करते हैं यह मंदबुद्धि। जब बुद्ध होते हैं तब गालियां देते हैं, जब बद्ध चले जाते हैं तब मुर्तियां बनाते हैं। इनको बड़ी देर से अकल आती है। अब बुद्ध की मूर्ति के सामने सिर पटकने से कुछ भी न होगा। और ये वे ही लोग हैं, जिन्होंने पत्थर फेंके बुद्ध पर। अब ये बुद्ध की मुर्तियां बनाते हैं। अब इनको बड़ा पश्चात्ताप हो रहा है कि हमने यह क्या कर लिया! और अगर बुद्ध फिर आ जायें, ये फिर पत्थर फेंकेंगे। क्योंकि जो है उससे तो इनका तालमेल नहीं बैठता। जो जा चुका, जो मर चुका...।
इसीलिए तो लोग परंपरापूजक हो जाते हैं। जितना पुराना उतना ही ज्यादा पूजा करते हैं। उतना ही उनकी अकल में आता है। उनकी अकल इतनी पिछड़ी हुई है, समसामयिक नहीं है। जैसे कोई आदमी वेद लिए बैठा है और वेद दोहरा रहा है। और इसकी फिक्र ही नहीं कर रहा है कि कहीं न कहीं पृथ्वी