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में बड़ा कुशल था। लेकिन सर्कस बहुत बड़ा था और एक राजधानी में बहुत महीनों तक रुका और उपवास करने की वजह से उसकी तरफ कोई ज्यादा ध्यान भी नहीं देता था। उसको न १० एजन की जरूरत थी, न कोई चिंता थी । वह तो अपने घास का एक बिस्तर बना लिया था, उसमें पड़ा रहता
था।
कुछ ऐसा हुआ कि सर्कस के शोरगुल में लोग भूल ही गये। मैनेजर उसका खयाल ही भूल गया। बड़ा उपद्रव था, भारी राजधानी थी, बड़ी भीड़-भाड़ थी। कोई दस-पंद्रह दिन बीत गये तब एक दिन मैनेजर को खयाल आया कि उस उपवास करनेवाले का क्या हुआ? और उसका था भी तंबू आखिर में। तो वह भागा हुआ गया। वह आखिरी सांसें गिन रहा था उपवास करनेवाला । पंद्रह दिन न तो कोई देखने आया, न किसी ने फिक्र ली।
मैनेजर तो हैरान हुआ, उसने कहा, पागल ! तूने भोजन क्यों नहीं कर लिया? न कोई देखने आया, न तेरी कोई फिक्र की। तू जाकर भोजन कर लेता ।
तो उसने कहा, आज एक राज की बात तुमसे कहें। उसकी आवाज बहुत धीमी हो गई थी, वह मरणासन्न था। मैनेजर को पास बुलाकर उसने कान में कहा कि असल बात यह है कि भोजन करने में मुझे रस ही नहीं है। कोई उपवास थोड़े ही कर रहा हूं! मैं किसी एक महाबीमारी से ग्रसित हूं कि मेरा स्वाद मर गया है। भोजन मैं कर ही नहीं सकता। यह उपवास तो अब इस मजबूरी को भी जीवन को चलाने का आयोजन बनाने में काम ला रहा हूं। यह उपवास तो सिर्फ बहाना है। लोग आते थे, देखते थे, तो मैं प्रसन्न रहता था। इन पंद्रह दिन में कोई भी नहीं आया तो मैं बिलकुल सिकुड़ गया हूं। वही मेरा मजा था। वह जो अहंकार की तृप्ति होती थी कि लोग आ रहे हैं, वही मेरा भोजन था। भोजन तो मैं कर ही नहीं सकता। भोजन करना संभव नहीं है। यह उपवास मेरा कोई तप नहीं था। यह मेरी एक दुर्बलता थी ।
तुम्हारे बहुत-से साधु – संन्यासी अनेक तरह की दुर्बलताओं से ग्रसित हैं। इन दुर्बलताओं को उन्होंने नये-नये आभूषण पहना रखे हैं।
अब मैं तुमसे कहूं, अगर बुद्ध जैसा कोई व्यक्ति कहे कि सत्य को तर्क से नहीं पाया जाता, समझ में आता है। महावीर जैसा कोई व्यक्ति कहे कि सत्य को तर्क से नहीं पाया जा सकता, समझ में आता है। अष्टावक्र कहें, सत्य को तर्क से नहीं पाया जा सकता, समझ में आता है। लेकिन कोई बुद्ध जिसको तर्क का अ ब स नहीं आता वह कहे कि सत्य को तर्क से नहीं पाया जा सकता तो यह बात सिर्फ दुर्बलता को छिपाने की है। इसका कोई मूल्य नहीं है।
ये बातें एक जैसी लगती हैं। इसलिए अनेक मूढ़ों को भी यह सुविधा है कि वे भी कह दें, तर्क में क्या रखा है? तर्क तो करना आता नहीं। तर्क करना कोई साधारण बात तो नहीं है। प्रखर बुद्धि चाहिए, तलवार की तरह धार चाहिए, मेधा चाहिए।
तो तर्क में कोई सार नहीं है यह कोई भी कह सकता है। दस में नौ मौकों पर यह झूठ होता है। तर्क में कोई सार नहीं है यह उसी को कहने का हक है जिसने तर्क किया हो और पाया हो कि