________________
है। तुम्हारी सज्जनता सशर्त है। कुछ शर्तें बदल जायें, तुम्हारी सज्जनता बदल जाती है। संत की सज्जनता बेशर्त है। तुम्हारे बीज हैं, ठीक भूमि मिल जाये और वर्षा हो तो तुम अंकुरित हो जाओगे। इसलिए पतंजलि ने संत को कहा है : दग्धबीज । उसका बीज जल गया है। अब चाहे वर्षा हो, चाहे ठीक भूमि मिले, चाहे न मिले। चाहे माली मिले कुशल से कुशल और लाख उपाय करे तो भी दग्धबीज से अब अंकुर पैदा होने को नहीं है।
तो अष्टावक्र की बातों को सुनकर तुम्हारे भीतर वे जो छुपे हुए प्रलाप हैं वेकहेंगे, अरे, हम भी कहा परेशान हो रहे थे! कहा पतजलियों के चक्कर में पड़ गये थे! छोड़ो भी! अष्टावक्र ने ठीक कहा। तो अपना लौट चलें। वही पागलपन, वही पुराना जीवन, वही ठीक है।
अष्टावक्र यह नहीं कह रहे हैं। ऐसी भूल में मत पड़ जाना। अष्टावक्र भोग के पक्ष में नहीं हैं। अष्टावक्र तो योग तक के पक्ष में नहीं हैं। क्योंकि अष्टावक्र कहते हैं, भोग से भी अहंकार ही भरता। भोग में भी कर्ता- भोक्ता, और योग में भी कर्ता - योगी। दोनों से अहंकार भरता ।
और उसी घड़ी परमात्मा उतरता, जहां अहंकार नहीं है।
'मंदमति उस तत्व को सुनकर भी मूढ़ता को नहीं छोड़ता है। वह बाह्य व्यापार में संकल्परहित हुआ विषय की लालसावाला होता है।'
मंदः हत्वापि तद्वस्तु न जहांति विमूढताम् ।
निर्विकल्पो बहिर्यत्नात् अंतर्विषयलालस।।
मंदमति का अर्थ मंदमति का अर्थ मूढ़ नहीं होता, जैसा हम मूढ़ का उपयोग करते हैं। मूढ़ का तो अर्थ होता है, मूर्ख, जो सुनकर समझ ही न पाये। जो यह भी न समझ पाये कि क्या कहा गया। मंदमति का अर्थ होता है, जो समझता तो है लेकिन समय निकल जाने पर समझता है; जरा देर से समझता है। सुस्तमति । जब समझना चाहिए तब नहीं समझता । जब समय निकल जाता है तब समझता है।
जैसे, वासना व्यर्थ है यह अगर बुढ़ापे में समझा तो मंदमति, जवानी में समझा तो तेजस्वी । बुढ़ापे में तो समय निकल गया। अब पछताये होत का, चिड़िया चुग गई खेत! बुढ़ापे में तो सभी समझदार हो जाते हैं, क्योंकि नासमझ होने का उपाय ही नहीं रह जाता। के होते होते तो वासनायें स्वयं ही क्षीण हो जाती हैं तो फिर वासनामुक्त होने का मजा अहंकार लेने लगता के जवानों पर हंसते हैं और समझते हैं, मूढ़ हैं। और ठीक यही मूढ़तायें उन्होंने अपनी जवानी में की हैं और उनके के उन पर हंस रहे थे। और उन को के साथ भी पहले यही हो चुका है।
जो के होने की वजह से बुद्धिमान हो गये हैं उनकी बुद्धिमानी दो कौड़ी की है। क्योंकि बुढ़ापे बुद्धिमानी के पैदा होने का कोई भी संबंध नहीं है। बुढ़ापे से तो एक ही बात होती है कि अब तुम कुछ बातें करने में विवश हो गये, अब नहीं कर सकते। अवश हो गये हो। अब इस अवशता को तुम सुंदर शब्दों में ढांककर त्याग - तपश्चर्या बनाते हो ।
काफ्का की एक बड़ी प्रसिद्ध कहानी है कि एक सर्कस में एक आदमी था जो उपवास करने