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दिनांक 29 जनवरी, 1977; श्री ओशो आश्रम, कोरेगांव पार्क पूना ।
अष्टावक्र उवाच।
नि:स्वभाव योगी अनिर्वचनीय है - ( प्रवचन - चौथा )
निरोधादीनि कर्माणि जहांति जडधीर्यदि। मनोरथान् प्रलापांश्न कर्पुमाम्मोत्यतत्सणात्।। 251।। मंदः श्रुत्वापि तद्वस्तु न जहांति विमूढताम्। निर्विकल्पो बहिर्यत्नादन्तर्विषयलालस।। 25211 ज्ञानादगलितकर्मा यो लोकद्वष्टआपि कर्मकृत्। नामोत्यवसरं कर्तुं वक्तुमेव न किंचन ॥ 25311 क्य तमः क्य प्रकाशो वा हान क्य न न किचन । निर्विकारस्थ धीरस्थ निरातंकस्थ सर्वदा ।। 25411 क्य धैर्य क्य विवेकित्व क्य निरातंकतायि वा । अनिर्वाव्यस्वभावस्थ निःस्वभावस्थ योगिनः ।। 25511 न स्वगों नैव नरको जीवन्युक्तिर्न चैव हि ! बहुना किमुक्तेन योगद्वष्टधा न किंचन ।। 25611 नैव प्रार्थयते लाभ नालाभेनानशोचति!
धीरस्थ शीतलं चित्तममृतेनैव पूरितम् ।। 257।।
गौतम बुद्ध ने साम्राज्य छोड़ा, धन- वैभव छोड़ा। एक अति से दूसरी अति पर चले गये।
सब त्यागा।
शरीर को जितने कष्ट दिये जा सकते थे, दिये। शरीर सूखकर काटे जैसा हो गया। इतने दुर्बल हो गये कि उठना-बैठना मुश्किल हो गया। निरंजना नदी को पार कर रहे थे कि पार न कर सके। धारा प्रबल थी और शक्ति नहीं थी पार करने की। एक वृक्ष की जड़ों को पकड़कर लटक रहे ।
खयाल आया मन में, सब मेरे पास था तब मुझे कुछ न मिला। सब मैंने गंवा दिया तो भी मुझे कुछ न मिला। कहीं कुछ चूक हो रही है। कहीं कुछ निश्चित भूल हो रही है। भोग से त्याग की