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जाते। इच्छा का ही चल रहा रहट हर पनघट पर
पर सबकी प्यास नहीं बुझती है इस तट पर तू क्यों आवाज लगाता है हर गगरी को? आनेवाला तो बिना बुलाये आता है! हर घट से अपनी प्यास बुझा मत ओ प्यासे! प्याला बदले तो मधु ही विष बन जाता है!
हर गगरी को मत चिल्लाओ। हर इच्छा के पीछे मत दौड़ो। और परमात्मा को भी एक बाहर की खोज मत बनाओ। परमात्मा बाहर की खोज नहीं है, बाहर की सारी खोज जब विफल हो जाती है और तुम लौट अपने घर आते हो, और तुम कहते, हो चुका। बहुत हो चुका अब नहीं खोजना अब कुछ भी नहीं खोजना। अब मोक्ष भी नहीं खोजना।।
यही तो अष्टावक्र कह रहे हैं बार-बार। मोक्ष भी नहीं खोजता है ज्ञानी। परमात्मा को भी नहीं खोजता है ज्ञानी। खोजता ही नहीं है। जहां सब खोज समाप्त हो गई, वहीं मिलन है। क्योंकि खोजनेवाले में ही वह छिपा है जिसे तुम खोज रहे हो।
और जिस दिन यह मिलन होता है उस दिन सारे जीवन पर अमृत की छाप लग जाती है। अभी तो मृत्यु ही मृत्यु के दाग हैं। कितनी बार नहीं तुम जन्मे और कितनी बार नहीं तुम मरो अभी तो तम मरघट हो। अभी तो तम न मालम कितनी अर्थियों का जोड हो! तम्हारे पीछे अर्थियों की कतार लगी है और तुम्हारे आगे अर्थियों की कतार लगी है। तुम तो अभी जीवित भी नहीं। कबीर कहते हैं, 'ई मर्दन के गांव।' ये मुर्दे रह रहे हैं इन गौवों में। ये बस्तियां थोड़े ही हैं, मरघट हैं।
तुम अपने को ही देखो। तुम्हारे हाथ में आखिर मौत ही लगती है। लेकिन जिसने रुककर अपने भीतर के सत्य का जरा-सा भी स्वाद ले लिया उसके जीवन में एक नई कथा का प्रारंभ होता है।
दूर कहीं पर अमराई में कोयल बोली परत लगी चढ़ने झिंगुर की शहनाई पर वृद्ध वनस्पतियों की टूटी शाखाओं में पोर-पोर टहनी-टहनी का लगा दहकने टूसे निकले, मुकुलों के गुच्छे गदराये अलसी के नीले फूलों पर नभ मुसकाया मुखर हुई बासुरी गालिया लगी थिरकने
टूट पड़े भौरे रसाल की मंजरियों पर पहली अषाढ़ की संध्या में नीलांजन बादल बरस गये फट गया गगन में नीलमेघ पय की गगरी ज्यों फूट गई बौछार ज्योति की बरस गई, झर गई बेल से किरन जूही मधुमयी चांदनी फैल गई, किरनों के सागर बिखर गये