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बिन समझे - जूझे यूं व्यर्थ मत उलझ
रे हठी तुनकमिजाज, शोर मत मचा कुछ तुक की बातें कर, पागल मत बन ओ मेरे मन !
मिल-जुलकर बैठ तनिक, रार मत बढ़ा चढ़ती दुपहरी को और मत चढ़ा अपने को देखभाल, दुनिया को छोड़
इतना कुछ पढ़-लिखकर पागल मत बन
ओ मेरे मन !
पहले अपने को जरा देखभाल कर लो। तुम अगर रुग्ण हो तो तुम एक रुग्ण मनुष्यता के निर्माता हो। तुम अगर दुखी हो तो तुम इस जगत में दुख को पैदा करने का कारण हो। तुम अगर आनंदित नहीं हो तो तुम पापी हो। अगर तुम मुझसे पूछो तो मेरे लिए एक ही पाप है और वह है, आनंदित न होना। अगर तुम आनंदित हो तो तुम पुण्यात्मा हो। फिर तुम्हें सब क्षम्य है। फिर तुम जो करो, ठीक। एक दफे तुम आनंदित हो जाओ। आनंद ने कभी कुछ गलत किया नहीं, कर नहीं सकता। और दुख ने कभी कुछ ठीक किया नहीं; कर नहीं सकता। दुख से जो होगा, गलत होगा। कितने ही अच्छे हों। मुखौटे कैसे ही पहनो दुख से कभी कुछ अच्छा नहीं हुआ है।
तो अक्सर ऐसा होगा कि तुम जिसकी सेवा करने जाओगे उसको भी हानि पहुंचाओगे। अभी तुम जहर से भरे हो। अभी तुम दूसरे में हाथ डालोगे तो जहर ही फैलाओगे। पहले अमृत से तो भ लो। फिर तुम्हें जाना भी न पड़े। शायद तुम बैठे-बैठे भी रहो तो भी इस जगत में तुमसे तरंगें उठें, जो लोगों को सत्य की तरफ, सच्चिदानंद की तरफ ले जायें।
लोग दुखी हैं उसका कुल कारण इतना है कि लोग ध्यानी नहीं हैं, और कोई कारण नहीं है। और अभी तुम्हीं ध्यानी नहीं हो। और इस जगत को सुखी करने का एक ही उपाय है कि किसी तरह ध्यान. ध्यान फैलता जाये। लोग शांत हों, स्वस्थ, स्वयं में केंद्रित हों तो जीवन से दुख मिट जाये । दुख हम पैदा करते हैं, कोई और पैदा नहीं कर रहा है।
आखिरी प्रश्न :
यदि संसार लीला है, खेल है
तो इसमें इतना दुख क्यों है? तपेदिक और कैंसर महामारी और मृत्यु भी क्या लीला के अंग है?