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पर-स्वभाव भाव, वह पर-परिणति है। करता है दूसरा कोई और खुद मानता है 'मैं कर रहा हूँ', वह है पर-परिणति!
परम पूज्य दादाश्री विज्ञान को जैसा है वैसा देखकर बताते हैं। आत्मा किसी चीज़ का कर्ता है ही नहीं और कर्ता के बिना कुछ होता नहीं है।
खुद संसार का चित्रण करता है और विचित्रता लाती है 'कुदरत'।
आत्मा हर एक जीव में है लेकिन बाहर का भाग डेवेलप होतेहोते आत्म स्वभाव की तरफ जाता है। विभाव, स्वभाव की तरफ जाता
दर्पण के सामने खड़े रहने वाला और दर्पण में प्रतिबिंब, दो एक सरीखे ही लगते हैं, मूल आत्मा और उसी जैसा 'मैं' (व्यवहार आत्मा) जब दोनों एक सरीखे हो जाएँगे, तब मुक्त हो पाएँगे। दोनों अलग हैं, इसलिए संसार बना।
अहंकार को शुद्ध करके आत्मस्थिति में आना पड़ेगा। सभी ज्ञान आत्मा में से ही निकलते हैं।
पुद्गल खुद के स्व-द्रव्य के अधीन है। हर एक तत्त्व अपने-अपने द्रव्य के अधीन हैं। कोई द्रव्य दूसरे द्रव्य में जाता ही नहीं है और खुद का स्वभाव छोड़ता ही नहीं है।
विभाव अर्थात् पौद्गलिक ज्ञान और दूसरा है आत्मा का स्वाभाविक
ज्ञान।
स्वभाव में रहना, ज्ञाता-दृष्टा रहना, वह चारित्र है। कोई गाली दे तब खुद के अंदर जो-जो चल रहा है, आत्मा उसका ज्ञाता-दृष्टा रहता
है।
विभाव में से भावना और भावना में से वासना। भौतिक सुख की भावना, वही वासना है।
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