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आप्तवाणी - १४ ( भाग - १
और आत्मा से उसका स्पर्श है, तो आत्मा तो मोक्ष स्वरूप ही है। तो हमारे साथ ये सब घोटाले क्यों होते रहते हैं ?
दादाश्री : नहीं, स्पर्श नहीं हुआ है । कुछ भी नहीं हुआ है I
प्रश्नकर्ता : तो फिर उसमें ये जो अशुद्ध कर्म बंध गए हैं, वे किस तरह से बंधे ? मुझे वह समझना है।
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दादाश्री : उसे समझने के लिए यहाँ पर आते रहना पड़ेगा। यह इतनी बड़ी बात है कि बार-बार यहाँ पर आते रहना पड़ेगा। एक दिन में बता दूँगा तो आपको कुछ भी समझ में नहीं आएगा। थोड़ा-थोड़ा समझते जाओगे तो इसका अंत आएगा । एक दिन में क्या गठरियाँ, सभी पोटलियाँ बाँध सकते हैं क्या ? यानी ज़रा सत्संग में आना पड़ेगा। अभी तो हैं दो-चार दिन यहाँ पर, चक्कर लगा जाना न! अच्छा लगा आपको ? कुछ पूछोगे तो वह सब ठिकाने पर आ जाएगा ।
अंत है लेकिन आदि नहीं कर्म की
प्रश्नकर्ता : कर्म के बंधन का मूल कहाँ से शुरू हुआ है ?
दादाश्री : इस कर्म के बंधन की बिगिनिंग नहीं है। कर्म के बंधन का एन्ड आ सकता है शायद, लेकिन बिगिनिंग नहीं है क्योंकि यह तो वैज्ञानिक प्रयोग है। पानी में पहले, यानी कि पहले ऑक्सीजन है या पहले हाइड्रोजन है? पहले कौन आया तो पानी बना ? यह सब एट ए टाइम है। साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स है यह! इसलिए कोई पहले या कोई बाद में है ही नहीं । शुद्ध चेतन और शुद्ध जड़ दोनों साथ में आए, यह विशेष गुण उत्पन्न हुआ इसलिए विशेष गुणधर्म को भजता (उस रूप होना, भक्ति) है । उसमें कर्तापन का गुणधर्म उत्पन्न हुआ और इससे कर्म बंधते हैं। अब वे भी स्थूल हैं जबकि आत्मा सूक्ष्म है। यह विशेष भाव कब तक है? जब तक पुद्गल (जो पूरण और गलन होता है) का संयोग है, तब तक। वह संयोग हमेशा का नहीं है।
यह जगत् बदलता है लेकिन भगवान, भगवान के रूप में ही रहे हैं, उनका रूप नहीं बदलता !