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दादाश्री : ऐसा है न, जिसमें फँस चुके हो उसका निबेडा तो लाना ही पड़ेगा न! अब जहाँ पर खुद को समझ में आ गया कि इन ज्ञानी से आत्मज्ञान, भेदविज्ञान सुनना है। तो उसे खुद को जो सब परेशानियाँ थीं वे सब खत्म हो गई। अब उसे खुद को उनका निकाल (निपटारा) कर देना है। कुदरती रूप से जो अन्य परेशानियाँ उलझन में डाल रही थीं, वे खत्म हो गईं और जो उलझन वाली नहीं हैं, उनका अब हम निकाल कर देंगे। वे मूल उलझन वाली, जो खत्म नहीं हो रही थीं, वे भेदविज्ञान से खत्म हो गईं और खुद अलग हो गया। माना हुआ बंध छूट गया।
वास्तव में तो यह बंध भी माना हुआ है। सबकुछ माना हुआ ही है। हम क्या कहना चाहते हैं कि सिर्फ बिलीफें ही रोंग हैं। अन्य कुछ भी नहीं बिगड़ा है। वह यदि राइट बिलीफ हो जाए तो बस हो चुका! जगत् की संज्ञा से चलते हैं, लोकसंज्ञा से। तो अगर रोंग बिलीफ नहीं बैठ रही हो तो भी बैठा देते हैं लेकिन यदि ज्ञानी की संज्ञा से चलें तो, रोंग बिलीफ खत्म हो जाती है। हम मुख्यतः क्या बताते हैं कि "तेरी' यह बिलीफ रोंग है, यह रोंग है, यह रोंग है। अन्य किसी भी जगह पर यह बात नहीं बताते हैं।
अंत में आना है स्वभाव में प्रश्नकर्ता : आत्मा का अंतिम पद कौन सा है?
दादाश्री : वही, सनातन सुख! शाश्वत सुख, बस। खुद के स्वभाव में आ जाना ही अंतिम पद है। अभी विभाव में है, विशेष भाव में है। आत्मा खुद के विशेष परिणाम के सभी अनुभव लेते-लेते आगे बढ़ता है।
प्रश्नकर्ता : हर एक मनुष्य में आत्मा होता है, तो उस आत्मा का ध्येय क्या है?
दादाश्री : उसकी जो स्वाभाविक दशा है न, उस स्वाभाविक दशा में आने का उसका ध्येय है। अभी यह विशेष भावी दशा है।