Book Title: Aptavani 14 Part 1 Hindi
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 266
________________ (२.१) परिभाषा, द्रव्य-गुण-पर्याय की संख्या, तत्त्वों के गुणों की प्रश्नकर्ता : गुणों की दृष्टि से, संख्या की दृष्टि से आत्मा में जितने गुण हैं उतने ही गुण पुद्गल (जो पूरण और गलन होता है) परमाणु में हैं, क्या यह बात सही है? दादाश्री : नहीं! उसके अनंत गुण हैं। अनंत ज्ञान वाला है, यह आत्मा। पुद्गल परमाणुओं में अलग प्रकार के गुण होते हैं। सभी में गुण हैं। सभी छः द्रव्यों में गुण हैं। द्रव्यों में अपने-अपने गुण और खुद के पर्याय, दोनों साथ में ही हैं। प्रश्नकर्ता : लेकिन उसका और उसकी संख्या का कोई लेना-देना नहीं है? इसके गुणों की इतनी संख्या और इसके इतने, ऐसा कुछ नहीं है? दादाश्री : संख्या गिनने की ज़रूरत ही कहाँ रही इसमें ? तांबे के ऐसे गुण हैं, सोने के ऐसे गुण हैं, पीतल के ऐसे गुण हैं, सभी की अपनेअपने गुणों में ही रमणता रहती है। प्रश्नकर्ता : एक तरफ कहते हैं, 'गुणों से संपूर्ण शुद्ध हूँ, सर्वांग शुद्ध हूँ' और एक तरफ आत्मा के मुख्य आठ गुण कहते हैं, तो वह कोन्ट्रडिक्शन (विरोधाभास) नहीं है ? दादाश्री : नहीं! उसके वे आठों ही गुण शुद्ध हैं। उस शुद्ध में अशुद्धि हो गई है, इस भ्रांति की वजह से। वह ज्ञानावरण गुण है, (लेकिन विभाव दशा वाला) उसकी शुद्धि हो जाने पर ज्ञान हो जाता है। यह जो दर्शनावरण गुण है, उसकी शुद्धि हो जाने पर ज्ञान हो जाता है। साफ गुण शुद्ध स्वाभाविक गुण में आ जाते हैं। क्या पूछना चाहते हो आप? प्रश्नकर्ता : निजगुण अर्थात् आत्मा खुद के गुणों को लेकर तो शुद्धि ही है लेकिन गुण आवरण की वजह से हैं न? दादाश्री : नहीं! वह तो है ही शुद्ध। स्वभाव से ही शुद्ध है। प्रश्नकर्ता : और हम जिन्हें गुण कहते हैं, वह आवरण के कारण कहते हैं न?

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