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आप्तवाणी-१४ (भाग-१)
सभी कुछ। ये जो अग्नि की लपटें उठती हैं न, जलती हैं न, वे लपटें सिर्फ लपटें नहीं हैं, वे सब जीव हैं। वे सब जीव, जो दिखाई देते हैं न, जो-जो भूरा और लाल दोनों साथ में हैं, वह भाग दिखाई देता है न, वहाँ पर सारे जीव होते हैं। लपटें यों ही नहीं निकलती। तेउकाय जीव हैं, उनका शरीर अग्नि रूपी है। इतना अधिक होट (गर्म), हीट वाला है कि हम जल जाते हैं।
वे सब जीव ही हैं। यह पूरी पृथ्वी निरे जीव ही हैं। वायु भी निरे जीव ही हैं। जीव का शरीर ही वायु है। उनकी बॉडी वायु है। पानी के जीवों की बॉडी पानी है, पृथ्वी के जीवों की बॉडी पृथ्वी है और अग्नि के जीवों की बॉडी तेज है।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् इन सभी में जीव हैं ? दादाश्री : निरा जीवों से ही भरा हुआ है यह जगत्।
प्रश्नकर्ता : ऐसी कोई स्वतंत्र वस्तु नहीं है जो बिल्कुल अजीव हो, निर्जीव हो?
दादाश्री : है, वह सारा पुद्गल है। यह जीव एक ही तत्त्व है। भगवान महावीर के छः तत्त्व कहे गए हैं न, उन छः द्रव्यों में सिर्फ जीव ही एक द्रव्य है, अन्य पाँचों अजीव हैं और उनमें से यह रामलीला बन गई है। अकेले थे लेकिन लीला देखो, कितनी बड़ी हो गई है ! इसी तरह आत्मा एक ही था, चेतन! और यह सब देखो, कितना सारा!
रूपांतरित करता है काल आपने कभी भी जगत् को उत्पन्न होते हुए देखा है ? प्रश्नकर्ता : देखा नहीं है लेकिन फिर भी रूपांतरित होता रहता
है न!
दादाश्री : रूपांतरण का अर्थ यही है उत्पन्न होना व लय होना, इस तरह रूपांतरित होता रहता है। वस्तु में कुछ उत्पन्न भी नहीं होता, लय भी नहीं होता और कुछ भी नहीं होता। अवस्थाओं का रूपांतरण होता रहता है।