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आप्तवाणी-१४ (भाग-१)
प्रश्नकर्ता : हम कहते हैं न कि तत्त्व के गुण, धर्म और पर्याय ।
दादाश्री : वह धर्म ही पर्याय है। जो मूल आत्मा है, उसके मूल गुण हैं। आत्मा बदलता नहीं है और गुण भी नहीं बदलते, लेकिन उसके धर्म बदलते रहते हैं। क्या बदलता रहता है? उसका जो ज्ञाता-दृष्टापन है न, उसकी शुरुआत कहाँ से होती है? अनंत भाग वृद्धि से। दूसरा असंख्यात भाग वृद्धि बढ़ती है।
अब असंख्यात भाग वृद्धि अर्थात् यह जो वस्तु है न, इसका असंख्यात भाग अर्थात् बिल्कुल बाल जितना भाग हो उतना बढ़ता है। फिर संख्यात का मतलब क्या है? जो उससे और आगे बढ़ता है, वह भाग। अनंत भाग वृद्धि था, उसमें असंख्यात आया इसलिए फिर से थोड़ा और बढ़ा। असंख्यात अनंत भाग से तो बहुत बड़ा होता है। फिर संख्यात आया अर्थात् बहुत बड़ा हो गया।
। उसके बाद संख्यात गुण वृद्धि। फिर उससे आगे का स्टेप क्या है? तो वह है, असंख्यात गुण वृद्धि। और उससे आगे का? वह है, अनंत गुण वृद्धि। इस प्रकार आत्मा खुद अपने ही स्वक्षेत्र में है। और उसमें इस प्रकार से सभी अवस्थाएँ बदलती ही रहती हैं। क्योंकि कौन सी अवस्था बदलती है, कि यहाँ पर दर्पण हो और अगर आप अकेले आओगे तो अकेले ही (सिर्फ आप ही) दिखाई दोगे, अगर दो लोग आओगे तो दो दिखाई दोगे, चार लोग आओगे तो...
प्रश्नकर्ता : चारों दिखाई दोगे। दादाश्री : अब ये सभी अवस्थाएँ बदलीं या नहीं बदलीं? प्रश्नकर्ता : बदलीं।
दादाश्री : उनका धर्म बदलता रहता है लेकिन गुण नहीं बदलते। उसी प्रकार से सिद्ध भगवान के आत्मा में जगत् झलकता (प्रतिबिंबित होता) है और जिस भाग वाले लोग सो गए हैं, उनमें कुछ हिलते-डुलते हैं, तो उन्हें देखते हैं। अर्थात् उषा काल में तीन-चार बजे अनंत भाग वृद्धि होती है इसलिए सुबह कुछ लोग चलते-फिरते दिखाई देते हैं।