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(२.४) अवस्थाओं को देखने वाला 'खुद'
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बीज डालता है। किसी पर ज़रा सा भी आरोप लगाओगे तो उसका फल भुगतना पड़ेगा। आरोप का फल भयंकर है।
समभाव से निकाल अर्थात् अवस्थाओं की आहुति देनी है। यह अंतिम प्रकार का महायज्ञ है।
यदि वाणी की, मन की और काया की अवस्थाओं में निरंतर जागृत रहकर (अवस्थाओं की आहुति रूपी) महायज्ञ में स्वाहा किया जाए (अवस्थाओं का ज्ञाता-दृष्टा रहे) तो आत्मा पर जो पर्याय चिपके हुए हैं, वे अलग होते जाएँगे और उतना ही खुद परमात्मा स्वरूप होता जाएगा।
सर्व अवस्थाओं में नि:शंक समाधान इस जगत् की सभी अवस्थाएँ अनंत हैं, लेकिन मन की अवस्थाएँ अनंत गुना अनंत हैं। जो उनमें से अलग हुआ, वह छूट जाएगा। अतः जिससे मन का समाधान हो (मन की अवस्थाओं का), वही ज्ञान सच्चा है। काल को भी शर्म आ जाए, ऐसा ग़ज़ब का ज्ञान उत्पन्न हुआ है और वह भी साइन्टिफिक है। मन की अनंत-अनंत अवस्थाओं में भी समाधान हो जाए, ऐसा है यह ज्ञान। लोग मन की अवस्थाओं में उलझ जाते हैं, इसलिए कहते हैं कि भगवान उलझा रहे हैं। अपना ज्ञान ही ऐसा है कि राग-द्वेष होते ही नहीं हैं।
फिर वे अवस्थाएँ भी समाधानकारी नहीं होतीं। अपने यहाँ क्या लिखा है ? सर्व अवस्था में नि:शंक समाधान । अतः अपना यह ज्ञान कैसा है कि हर एक अवस्था में नि:शंक समाधान ही रहता है। इस जगत् में तो कैसा है? तो कहते हैं कि यदि जेब कट जाए तो डिप्रेस हो जाता है, समाधान नहीं रहता और कोई फूल चढ़ाए तो एलिवेट हो जाता है। इन सभी अवस्थाओं में डिप्रेस और एलिवेट सब होता रहता है। जब खुश होता है तो चढ़ (एलिवेट हो) जाता है।
प्रश्नकर्ता : ऐसा क्यों होता है कि वीतराग पुरुष की गैरहाज़िरी में अवस्था में अस्वस्थ हो जाते हैं? आपकी गैरहाज़िरी होती है तो फिर अस्वस्थ हो जाते हैं और आपकी हाज़िरी में स्वस्थ रहते हैं।