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(२.३) अवस्था के उदय व अस्त
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ऐसा है इस दुनिया में जो छः तत्त्व हैं न, उनका उत्पन्न और विनाश होना, वह अवस्था के कारण और ध्रुवता स्वभाव के कारण है। यह स्वभाव ही है, उसी के लिए इन लोगों ने एक रूपक बनाया। वह किया था अच्छी खोज़ के लिए। अच्छा करने गए लेकिन बहुत दिन बीतने पर तो उल्टा ही हो जाता है न फिर, नहीं हो जाता? सही बात को कौन समझाए फिर?
दो तत्त्वों के साथ में आने से विशेष भाव हुआ, उससे यह जगत् खड़ा हो गया। न तो ब्रह्मा हुए हैं, न ही कोई गढ़ता है और न ही गढ़ने की ज़रूरत पड़ी। यह सब कहाँ तक उल्टा चला है? लेकिन लोग मूल बात से करोड़ों कोस दूर चले गए हैं। लेकिन (आध्यात्म के) कॉलेज में आते ही तत्त्व दर्शन की शुरुआत हो जाती है कि हकीकत क्या है, वास्तविकता क्या है इस जगत् की? उन किताबों को एक तरफ रख देना पड़ेगा, उसके बाद में राह पर आ जाएगा।
ज़रूरत है। लोग माँग रहे हैं यह। कुछ नवीनता माँग रहे हैं। पुस्तकें गलत नहीं हैं। लोगों के लिए पुस्तकों को समझना मुश्किल हो गया है अतः वह चला नहीं। लेकिन इतना अच्छा हुआ है कि यह पीढ़ी नई ही प्रकार की पैदा हुई है न, उस पूरे बीज को, पूरी श्रद्धा को ही उड़ा दिया कि 'यह सब अंधश्रद्धा ही है, ऐसा सब गलत है'। इसे पूरा ही काट देना अच्छा है, यदि यह यहाँ से सड़ जाए, तब यहाँ से काट दिया जाए तो उतना वह आगे बढ़ना रुक जाएगा।
मोक्ष में जाना हो तो तत्त्व और गुण को जानना व समझना पड़ेगा। वर्ना जब तक इस संसार में रहना हो तब तक तत्त्वों के धर्म, पर्याय और अवस्थाओं को जानना व समझना पड़ेगा।
नियम, हानि-वृद्धि का प्रश्नकर्ता : गुण और धर्म में क्या फर्क है?
दादाश्री : धर्म हमेशा ही बदलता रहता है और जो गुण हैं, वे नहीं बदलते। वस्तुओं के जो स्वाभाविक गुण हैं, वे नहीं बदलते।