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आप्तवाणी-१४ (भाग-१)
आएँगी। अंत में शायद बहुत अच्छा भी उगे या अत्यंत ठंड भी पड़ जाए। उसी प्रकार से इस संसार में प्रत्येक क्षण अवस्था वाला है। प्रत्येक क्षण अवस्थाएँ बदलती ही रहती हैं।
जब बच्चा सो रहा हो और उस अवस्था में सब के बीच उसका अपमान किया जाए तो उसे कोई परेशानी नहीं होगी और दूसरा इस ज्ञान दशा में अपमान से कोई परेशानी नहीं होती। रही बीच वाली अवस्था। इन्द्रिय प्रत्यक्ष अवस्था में ही सब दखल है। 'मेरा-तेरा' बताता है, उसमें ज़रा सा अपमान करने से परेशान हो जाता है।
मन की अवस्था, वचन की अवस्था और काया की अवस्था से बाहर कुछ भी नहीं होता है। जिस पर इफेक्ट होता है, उसे समझना है। अवस्था का समभाव से निकाल (निपटारा) कर देना चाहिए।
उसी प्रकार से जब गाढ़ कर्म वाली अवस्थाएँ आएँ तब तुरंत ही उनमें से निकल जाना चाहिए। अवस्थाएँ निश्चेतन चेतन हैं। हम खुद शुद्ध चेतन हैं। अवस्थाओं को देखना है। आप अवस्थाओं में चिपक जाते हो इसलिए दुःखी हो जाते हो, इसीलिए आनंद नहीं आता।
__ जब रात को सो जाते हो तब कारखाना दिखाई देता है और फिर झंझट करते हो। इस प्रकार जो झंझट करते हो, वे सब भी अवस्थाएँ हैं।
जोड़-बाकी अपने आप ही कुदरती रूप से होते रहते हैं। उसमें तू इकट्ठा क्यों कर रहा है ? नॉर्मल ज़रूरतों से अधिक कुछ भी इकट्ठा नहीं करना चाहिए। इन्द्रियाँ भी अवस्थाएँ हैं और वह वस्तुओं से गढ़ी हुई है। उनमें तत्त्व नहीं दिखाई देते। जिस मील तक पहुँचा है, उस मील का दिखाई देता है। वह मील उसकी अवस्था है। यह पूरा जगत् गणित ही है। आत्मा गणित नहीं है।
किसी भी अवस्था में अड़तालीस मिनट से अधिक नहीं रह सकते, ऐसा नैचुरल नियम है। घड़ी में बड़ा काँटा हर मिनट पर घूमता रहता है, वह घड़ी नहीं परंतु उसकी अवस्था है। यह दुनिया ऐसी नहीं है कि किसी भी एक अवस्था में सैंतालीस मिनट और उनसठ सेकन्ड से अधिक