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(२.४) अवस्थाओं को देखने वाला 'खुद'
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अवस्थाओं का तो निरंतर समसरण होता ही रहता है, बहती ही रहती हैं। आती हैं, रहती हैं और चली जाती हैं। उसमें सुख और शांति कहाँ है? इन अवस्थाओं में हम तत्त्व स्वरूप से ही रहते हैं। जहाँ पर ठीक लगे, वहाँ पर मुकाम करना। एक क्षण के लिए भी कोई जीव अवस्था रहित नहीं हो सकता। भ्रांति से अवस्था को ही, खुद है, ऐसा मान लेता है। कोई भी अवस्था जो उत्पन्न होती है, वह गुनहगारी की है।
अवस्थाओं से बंधे हुए लोग व्यवहार सुख भी नहीं भोग सकते। एक घंटे पहले किसी अवस्था में चित्त एकाग्र हो जाए तो उसी में चित्त रहता है अर्थात् अवस्था से बंधे हुए को बोझ रहता है और चाय पीने की अवस्था के समय उस बोझ में रहकर चाय पीता है।
लोगों को आत्मा के पर्याय से बाहर की बहुत पड़ी होती है। अर्थात् मूर्छा में घूमते रहते हैं। लेकिन कितने ही लोग डेवेलप हो चुके हैं, इसीलिए उन्हें मूर्छा में अच्छा नहीं लगता और दूसरी तरफ आत्मा भी नहीं मिल पाता। तो दिनोंदिन वह पर्याय पतला होता जाता है, सूक्ष्म होता जाता है। पर्याय के सूक्ष्म होने के बाद उससे सहन ही नहीं होता। एक घंटे में तो कितने ही विचार आ जाते हैं ! वह बीच में लटक जाता है। ऐसों से मैं कहता हूँ कि 'भाई, जा तू वापस मोह में चला जा और मोटे पर्याय में पड़ा रह'। मोटे पर्याय वाले आराम से सोते हैं और खर्राटे लेते हैं। सूक्ष्म पर्याय वाले को तो नींद ही नहीं आती।
लोग अवस्था में ही मुकाम करते हैं यानी फॉरेन को ही होम मान बैठे हैं। उसी की वजह से ये दुःख हैं। यदि होम को होम माने और फॉरेन को फॉरेन माने तो कोई दुःख नहीं रहेगा।
जिस समय जिस अवस्था में होता है न, उस अवस्था को नित्य (हमेशा की) और सत्य मान लेता है और उलझता रहता है। बिना बात के उलझन, उलझन और उलझन ।
अवस्था की भजना (उस रूप होना, भक्ति) न करने वाले कितने हैं ? साधु-सन्यासी वगैरह सभी अवस्थाओं की ही भक्ति करते रहते हैं।