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(२.४) अवस्थाओं को देखने वाला 'खुद'
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की हैं और ये अवस्थाएँ दरअसल ज्ञान की हैं। ज्ञेय की अवस्था परिमाण के अनुसार ज्ञान प्रकाश की अवस्था का परिमाण रहता ही है। लेकिन उन दोनों अवस्थाओं के बीच भेदांकन हो जाना चाहिए। इसमें हमें अधिकार तो सिर्फ ज्ञाता-ज्ञेय संबंध को जानने मात्र का ही है। (व्यवहार) आत्मा द्वारा भ्रांति से सोचा हुआ एक भी विचार ज्ञाता-ज्ञेय के संबंध को जानने से ही जाएगा, उसके बिना नहीं जा सकता क्योंकि वह भ्रांति से है, लेकिन फिर भी वह (व्यवहार) आत्मा की उपस्थिति के स्टेम्प वाला विचार है।
'स्व' में स्वस्थ, अवस्था में अस्वस्थ
पूरा जगत् अवस्था में स्वस्थ रहता है। वकील के पास जाए तो वह वकील कहता है कि 'तू मेरा मुवक्किल है'। तो वह मुवक्किल की अवस्था में स्वस्थ रहता है। अरे भाई, स्व में स्वस्थ रह! यदि अवस्था में अवस्थित रहेगा तो स्वस्थ कैसे रह सकेगा?
जब से गर्भ में आया, तभी से अवस्था में है। 'मैं' में गया कि अवस्था में चला जाता है और यदि 'स्व' में स्वस्थ हो जाएगा तो परमात्मा। अवस्था मात्र कुदरती रचना है, जिसका कोई बाप भी रचने वाला नहीं है। वह कुदरती रचना क्या है, वह सिर्फ मैं ही जानता हूँ।
दर्पण में यदि पहाड दिखाई दे तो क्या उससे दर्पण को वज़न महसूस होगा? उसी प्रकार से ज्ञानियों पर सांसारिक अवस्था का कोई असर नहीं होता।
यदि ऐसा जाने कि "जो कुछ भी टेम्परेरी है, वह 'मेरा नहीं है" तो वही ज्ञान है। सभी पर्याय शुद्ध होने के बाद अनंतज्ञान कहलाएगा। ये सभी सूक्ष्म संयोग, अनंत पर्याय हैं। उनके शुद्ध होने पर अनंतज्ञानी कहलाएगा।
सभी पर्यायों को जानने जाएँगे तो कहाँ अंत आएगा? उसके बजाय तो 'मैं यह हूँ' और ये सभी पर्याय हैं, इतना जान लिया तो काम ही निकल जाएगा।