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(२.४) अवस्थाओं को देखने वाला 'खुद'
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प्रश्नकर्ता : दादा! यह पूरा रिलेटिव स्वरूप उत्पन्न होना, जिसे हम चंदूभाई कहते हैं, वह अंदर अवस्थाओं के आधार पर ही उत्पन्न होता है न?
दादाश्री : हाँ! अवस्था ही है न, भाई। अवस्था के आधार पर क्या? ऐसा नहीं है। अवस्था ही है चंदूभाई की! अज्ञान में से उत्पन्न हुई (अवस्थाएँ)। इस स्वरूप के अज्ञान से, विशेष ज्ञान से ऐसा सब हो गया। निर्विशेष ज्ञान से खत्म हो जाएगा।
अनंत काल से जो नहीं समझ सके कि अनादि अनंत क्या है? आप जो समझ नहीं सके कि जगत् अनादि अनंत है, वह मुझे समझाना पड़ा। मूल स्वरूप से आत्मा अनादि अनंत है। जीव स्वरूप से जीवित रहता है, और मरता है अवस्था स्वरूप से। जो जीवित रहता है, वह
आदि-अंत वाला है। निर्बुद्व अवस्था (मूल अवस्था) अनादि अनंत है। द्वंद्व अवस्था अथवा द्वैत अवस्था, वह जीव अवस्था है और वह आदिअंत है। जन्म लेता है, वह आदि है और मरता है, वह अंत है, यह हमारा कथित केवलज्ञान है।
आत्मा की अवस्था को जीव कहा गया है और वह आत्मा 'परमानेन्ट' है। जो जीता-मरता है, वह जीव है ! जिसे 'मैं जी रहा हूँ'
और ऐसा भी भान है कि, 'मैं मर जाऊँगा', उस अवस्था को जीव कहा गया है।
जीव तत्त्व रूप में अनादि अनंत है। अतत्त्व रूप में आदि-अंत है। फेज़िज (अवस्था) के तौर पर आदि-अंत है। अतत्त्व अर्थात् फेज़िज़ के तौर पर। जीव की अवस्थाएँ कौन-कौन सी हैं ? अवस्थाओं में जैसा आरोपण करता है, उस कारण से उसकी अन्य अवस्थाएँ उत्पन्न होती हैं। जब तक अहंकार है, तब तक वह आरोप करेगा ही।
__ ये व्यू पोइन्ट वाले लोग खुद की हर एक अवस्था का किसी पर आरोपण करते हैं।
जो जीता और मरता है, वह जीव है और जो अमर पद प्राप्त कर