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आप्तवाणी-१४ (भाग-१)
हमारे ज्ञान में दिखाई देता है। लोगों पर कैसा कैसा असर होता है, वह सब हमें दिखाई देता है।
जैसी-जैसी अवस्थाएँ मिलती हैं, वैसा ही उसका नाम पड़ जाता है। पैर टूट जाए तो लंगड़ा, उसका नाम लंगड़ा थोड़े ही है? टाइप करता है तो टाइपिस्ट। ये अवस्थाएँ तो पत्ते का महल है, टूटकर चूर-चूर हो जाएगी। सभी लोग अवस्थाओं में बैठक ले लेते हैं।
जिस अवस्था में आता है न, उसी अवस्था का जतन करता रहता है। पूरी जिंदगी मुक्त रहता है और आखिर में छ: महीने यदि जेल में डाल दिया जाए न, तो 'मैं कैदी बन गया, मैं कैदी हूँ' ऐसा कहता है। शादी करवाने पर सौभाग्यवती का सुख बरतता है और फिर विधवा हो जाए तो वैधव्य का दुःख उत्पन्न होता है। 'मैं तो विधवा हूँ' कहती है। अरे, पिछले जन्म में भी तो विधवा हो गई थी और वापस सौभाग्यवती हो ही गई थी न! विधवा बने और सौभाग्यवती बन गए। अरे, यह दखल ही है। और क्या है फिर?
अवस्थाएँ बदलती हैं, आत्मा उसी रूप में रहता है। आत्मा में कोई बदलाव नहीं होता और फिर भूल भी जाते हैं। परसों जो झगड़ा हुआ हो, उसे भूल जाते हैं और आज वापस सिनेमा में घूमने जाते हैं। हमें लगता है कि परसों जब मैं गया था, तब तो दो जनों का झगड़ा हो रहा था और आज सिनेमा देखने निकले?
गड़बड़ घोटाला है, यह पूरी दुनिया। फिर भी सही है, रिलेटिवली करेक्ट है और आत्मा, रियली करेक्ट है। इस दुनिया में जो रियल करेक्ट हैं, वे सब वस्तुएँ हैं और जो रिलेटिव करेक्ट हैं, वे सभी वस्तुओं की अवस्थाएँ हैं।
कथित केवलज्ञान रिलेटिव कभी भी रियल नहीं बन सकता और जो रियल है, वह कभी भी रिलेटिव नहीं बन सकता। रियल अविनाशी है और रिलेटिव विनाशी है, दोनों कभी भी एक नहीं हो सकते।