Book Title: Aptavani 14 Part 1 Hindi
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 335
________________ २६४ आप्तवाणी-१४ (भाग-१) लेता है, वह आत्मा है। आत्मा सेल्फ है और जीव रिलेटिव सेल्फ है। जीव तो अवस्था है। अंत में अवस्थाओं का अंत मत्य और जन्म, दोनों भ्रांति से दिखाई देते हैं। वह सिर्फ मानता ही है, दिखाई नहीं देता। मानता ही है कि मेरी मृत्यु हुई और मेरा जन्म हुआ, मेरी शादी हुई। वास्तव में हकीकत में तो ऐसा नहीं है। हकीकत में वह खुद आत्मा रूप ही है। लेकिन उसे गाँठ पड़ गई है कि 'यह मैं ही हूँ। वस्तु उत्पन्न नहीं होती और उसका विनाश भी नहीं होता। वस्तु की अवस्थाओं का विनाश होता है और वे उत्पन्न होती हैं। जब बचपन आए तब उस समय बुढ़ापा नहीं होता। जब जवानी आती है, तब बचपन नहीं रहता। सभी अवस्थाएँ बदलती रहती हैं। अवस्थाएँ निरंतर बदलती रहती हैं लेकिन वे वस्तु नहीं होतीं। वे तो वस्तुओं की स्थितियाँ हैं। और यह जो शरीर बनता है, वह तो 'अपनी' भ्रांति की वजह से ऐसा मान लेते हैं कि 'यह शरीर मेरा है'। अगर भ्रांति छूट जाए तो शरीर मिलना छूट जाएगा। उसके बाद भी अवस्थाएँ तो उत्पन्न होंगी ही। यानी कि ज्ञान और दर्शन के पर्याय उत्पन्न होंगे। कोई वस्तु दिखाई देती है तो पर्याय उत्पन्न होते हैं। वह वस्तु चली जाए तो फिर पर्याय खत्म हो जाते हैं। अतः उत्पन्न होना, विनाश होना, वह सब चलता ही रहता है। ये सभी अवस्थाएँ मरती हैं। यह जो सर्दी का मौसम है, वह मर जाएगा या नहीं मरेगा? उसके बाद गर्मी के मौसम का जन्म होगा। इस प्रकार से अवस्थाओं की उत्पत्ति और विनाश होता ही रहता है। भाषा भगवान की है न्यारी रे । जो जन्म लेता है वह मरता है, जीवन एक अवस्था है, मृत्यु भी एक अवस्था है। ज्ञानियों की भाषा में अनात्मा या आत्मा, कोई भी नहीं मरता। अवस्थाएँ लय होती हैं।

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