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(२.३) अवस्था के उदय व अस्त
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प्रश्नकर्ता : उसमें आत्मा की शक्ति एक नैमित्तिक कारण है या नहीं?
दादाश्री : कुछ भी लेना-देना नहीं है, आत्मा को क्या लेना-देना? प्रश्नकर्ता : इसमें आत्मा की क्या ज़रूरत पड़ती है? ।
दादाश्री : यह जो काल है, वह हर एक चीज़ को खा जाता है। काल हर एक चीज़ को पुरानी करता है और फिर हर एक को नई करता है। रूपांतरण में सबकुछ आ गया। रूपांतरण अर्थात् क्या? उत्पन्न होना, नाश होना और कुछ देर के लिए टिकना।
तत्त्व की उत्पत्ति नहीं है, उसके गुणों की उत्पत्ति नहीं है। जिस प्रकार से तत्त्व स्थिर रहता है, उसी प्रकार से गुण भी स्थिर रहते हैं, पर्याय बदलते रहते हैं।
ये संयोग-वियोग, ये हैं पर्याय प्रश्नकर्ता : जैन दर्शन की त्रिपदी यह है, सत्ता के रूप में स्थिति, पर्याय से परिवर्तनशील और खुद के स्वभाव में से न हटना। इनमें से ये जो मुख्य रूप से, ये जो तीन बातों की चर्चा की ज़रूरत है। अब वे तीनों, एक-एक करके लीजिए आप।
दादाश्री : उत्पन्न होना, स्थिर होना और विनाश होना। स्थिर होना खुद के स्वभाव से है। उत्पन्न और विनाश पर्याय से हैं।
प्रश्नकर्ता : इतना आसान था! इतना आसान था, ऐसा कह रहा हूँ।
दादाश्री : हाँ, वह तो आसान था। खुद के स्वभाव में से न हटना, उसे कहते हैं ध्रुव रहना।
प्रश्नकर्ता : हम एक उदाहरण लें, पहले जड़ का और फिर चेतन का।
दादाश्री : आप खुद शुद्धात्मा हो, वह ध्रुव के तौर पर हो।