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आप्तवाणी - १४ ( भाग - १ )
अतः आप अपने आपको जानते हो, 'मैं शाश्वत हूँ', लेकिन यहाँ पर जो अवस्थाएँ उत्पन्न होती हैं, वे संयोग हैं। वे संयोग वियोगी स्वभाव के हैं। वे संयोग पर्याय हैं और वियोगी भी पर्याय हैं । यह बताना चाहते हैं कि वियोगी फल देकर चले जाते हैं । उत्पन्न होना, विनाश होना और स्थिर रहना । खुद तो स्थिर ही रहता है और यह सब होता रहता है।
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प्रश्नकर्ता : अतः आत्मा स्थिर रहता है ?
दादाश्री : हाँ! आत्मा (खुद, शुद्धात्मा) स्थिर रहता है I
उत्पाद, व्यय, ध्रुव
प्रश्नकर्ता : ऐसा कहा जाता है कि जिस समय महावीर भगवान ने गौतम स्वामी को त्रिपदी का ज्ञान दिया, उसके बाद तुरंत ही उन्हें आत्मज्ञान हो गया था ?
दादाश्री : नहीं-नहीं! तुरंत नहीं। वह तो महावीर भगवान के साथ में रहने से उन्हें धीरे-धीरे ज्ञान प्रकट होता गया । भगवान जो कुछ भी कहते थे, उस पर से उन्हें ज्ञान प्रकट होता गया और गौतम स्वामी को केवलज्ञान तो उनके (महावीर भगवान के) जाने के बाद में हुआ । अतः त्रिपदी तो सब से पहले समझाई जाती है । उत्पाद, व्यय और ध्रुव इस जगत् का स्वरूप है। सभी तत्त्व उत्पाद, व्यय और ध्रुव हैं, ऐसा समझाया जाता है और उसी से यह सारा तूफान मचा है । उत्पन्न होना, व्यय होना और कुछ समय तक रहना, यही स्वरूप है।
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प्रश्नकर्ता : उत्पन्नेवा, विघ्नेवा, ध्रुवेवा ।
दादाश्री : हाँ, उस त्रिपदी को जानने के बाद फिर जानने को क्या रहता है इस दुनिया में ? उत्पन्न होता है, लय होता है और ध्रुवता में है। यदि लय नहीं होगा तो दूसरा उत्पन्न नहीं होगा। अतः लय होता है, उसके बाद उत्पन्न होता है और फिर उत्पन्न व लय होने के बावजूद भी वस्तु ध्रुव है । त्रिपदी में महावीर भगवान ऐसा समझाना चाहते हैं ।