________________
(२.२) गुण व पर्याय के संधि स्थल, दृश्य सहित
२१३
दादाश्री : (आत्मा के) स्वभाव के साथ हैं।
प्रश्नकर्ता : हाँ, लेकिन उस आत्मा के पर्याय का कोई उदाहरण दीजिए तो कुछ समझ में आए कि यह आत्मा का पर्याय है।
दादाश्री : यह जो पर्याय शब्द आता है न, तो अभी भी ये स्वभाव के पर्याय नहीं हैं, ये विभाव के पर्याय हैं।
प्रश्नकर्ता : लेकिन स्वभाव के पर्याय कैसे होते हैं? दादाश्री : स्वभाव के पर्याय शुद्ध ही होते हैं।
प्रश्नकर्ता : हाँ, लेकिन उनमें कोई विविधता होती है या वे एक ही प्रकार के होते हैं?
दादाश्री : उनमें विकल्प भाव है ही नहीं न! उनमें वे मान्यताएँ नहीं हैं न! स्वाभाविक रूप से रहते ही हैं। जबकि ये सब तो मान्यताएँ हैं। विकल्प। संकल्प-विकल्प। (यह सब विभाव के पर्याय में होता है।)
प्रश्नकर्ता : पुद्गल पर्याय तो समझ में आता है लेकिन आत्मा के पर्याय कैसे होते हैं? वह उदाहरण देकर समझाइए।
दादाश्री : सूर्य का जो तेज है, प्रकाश नामक जो गुण है, वह उसका गुण कहलाता है। जो किरणें हैं, वे पर्याय हैं। उसका गुण हमेशा के लिए रहता है और जो पर्याय हैं, वे फिर खत्म भी हो जाते हैं। पर्याय विनाशी हैं।
प्रश्नकर्ता : लेकिन इसमें तो उजाले की किरणें होती हैं, तो आत्मा में ज्ञान-दर्शन के पर्याय कैसे होते हैं?
दादाश्री : वह जो ज्ञान है, वह प्रकाश है और ज्ञान द्वारा जानना, वह पर्याय है। देखना-जानना, वे सब पर्याय हैं। जो मूल स्वभाव है, वह शाश्वत है जबकि पर्याय तो बदलते रहते हैं। जो देखना व जानना बदलता रहता है, उसे पर्याय कहते हैं।
प्रश्नकर्ता : लेकिन जिस ज्ञेय को देखना और जानना है, वह ज्ञेय तो पौद्गलिक है, तो उसमें इसका पर्याय कहाँ पर माना जाएगा?