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(२.३) अवस्था के उदय व अस्त
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करता है। यदि इस जगत् में अवस्थाएँ नहीं होती तो तत्त्व भी नहीं होते।
आत्मा का स्वतंत्र चेतन तत्त्व और पुद्गल का रूपी तत्त्व, इन दोनों के मिलने से संसार खड़ा हुआ है और दुकान शुरू हुई। अवस्थाएँ होंगी तभी वह तत्त्व कहलाएगा वर्ना अतत्त्व कहलाएगा।
वस्तु नाशवंत होती ही नहीं है लेकिन जो दिखाई देती हैं, वे सभी अवस्तुएँ हैं। वे मिथ्या नहीं हैं, रिलेटिव स्वरूप हैं।
प्रश्नकर्ता : लेकिन यह जो कर्म की वर्गणा (कर्मरज) चिपकती है, वह पर्याय पर चिपकती है?
दादाश्री : नहीं, कुछ भी नहीं चिपकता। जो कर्म है, उसे तो पुद्गल कहा जाता है। जो चिपकता है उसे, दखल करना कहा जाता है।
प्रश्नकर्ता : इस कर्म की वर्गणा चिपकती है, उसी वजह से तो संसार का भ्रमण है न?
दादाश्री : हाँ, लेकिन वह आत्मा से नहीं चिपकती। पर्याय से भी नहीं चिपकती, गुण से या किसी से भी नहीं चिपकती।
प्रश्नकर्ता : आत्मा द्रव्य-गुण-पर्याय सहित है। अब आत्मा पर जो कर्मरज चिपकती है, उसकी प्रकिया किस प्रकार से है?
दादाश्री : वह उस पर नहीं चिपकती।
प्रश्नकर्ता : वह द्रव्य से नहीं चिपकती लेकिन पर्याय से तो चिपकती है न?
दादाश्री : नहीं! पर्याय से भी नहीं चिपकती। ये सारी मान्यताएँ ही उल्टी हैं। यदि वह पर्याय पर चिपकती न, तो फिर उखड़ती ही नहीं।
प्रश्नकर्ता : तो फिर कर्म का बंधन किस तरह से होता है ?
दादाश्री : वही समझना है, उसी को आत्मज्ञान कहते हैं न! यह तो सब यों ही बुद्धि से सेट करते रहते हैं, पर्याय से चिपक गया और ऐसा हो गया और वैसा हो गया।