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[३] अवस्था के उदय व अस्त
पर्याय की परिभाषा आत्मा सत् है, सत् का मतलब यही है कि वह खुद वस्तु रूपी है, गुण रूपी है, उसके पर्याय हैं और खुद स्वतंत्र है।
प्रश्नकर्ता : दादा, इसमें उन शब्दों का उपयोग किया, निरंतर परिवर्तन अर्थात् अंत रहित?
दादाश्री : रुकता नहीं है, निरंतर । समसरण अर्थात् निरंतर परिवर्तन, एक क्षण के लिए भी नहीं रुकता। वह उत्पाद, व्यय, ध्रुव... एक अवस्था उत्पन्न होती है, एक का विनाश होना और दूसरी अवस्था का उत्पन्न होना। यों अवस्थाएँ उत्पन्न होती रहती हैं।
अब, आत्मा की सभी अवस्थाएँ विनाशी हैं, उन्हें पर्याय कहा जाता है। पर्याय का मतलब क्या है ? यह जो सूर्य है न, उसके अंदर प्रकाश है। प्रकाश उसका स्वभाव है। अब वह प्रकाश, तो यहाँ पर वह सब क्या दिखाई देता है? किरणें! वे पर्याय हैं। पर्याय निरंतर बदलते ही रहते हैं और प्रकाश वही रहता है। आत्मा के पर्याय उसके खुद के प्रदेश में रहकर बदलते रहते हैं लेकिन पर्यायों पर किसी चीज़ का असर नहीं होता। अभी (स्वाभाविक) आत्मा अंदर टंकोत्कीर्ण है। वैसे के वैसा ही है, स्वच्छ ही है।
कर्मरज चिपकते हैं भ्रांतिरस से पुद्गल (जो पूरण और गलन होता है) की अवस्था है, आत्मा की अवस्था है। दोनों ही अवस्थाओं को मिलाकर फिर वह 'खुद' झंझट