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(२.२) गुण व पर्याय के संधि स्थल, दृश्य सहित
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बुद्धि के पर्याय कहलाते हैं। (ज्ञान लेने के बाद अहंकार नहीं रहता इसलिए जब बुद्धि देखती है तब उसमें अहंकार नहीं होने की वजह से राग-द्वेष नहीं होते।) मूल आत्मा के पर्याय भी शुद्ध हैं। मूल आत्मा का ज्ञान शुद्ध है, उसके पर्याय शुद्ध हैं और यह (विभाविक आत्मा का) (ज्ञानी पद में) ज्ञान शुद्ध है, पर्याय शुद्ध नहीं हैं।
प्रश्नकर्ता : ज्ञान शुद्ध है और पर्याय शुद्ध नहीं हैं, इसके बावजूद भी वह देखता और जानता है?
दादाश्री : हाँ, इन दादा में जो है, वैसी वीतरागता। पर्याय में भी उन्हें राग-द्वेष नहीं होते। फिर भी ऐसा जानते हैं कि 'यह अच्छा है और यह बुरा है'। उससे नीचे वाले भाग में बुद्धि जैसा पद है, जिसे पौद्गलिक माना जाता है। उसमें से राग-द्वेष भी होते हैं। (क्योंकि वह बुद्धि जो देखती और जानती है, उसमें अहंकार के एकाकार रहने से राग-द्वेष होते हैं) और यह दृश्य क्या है ? उसके तो चार भाग करना अच्छा है। एक दृष्टा, दूसरा दृष्टा, तीसरा दृश्य और चौथा दृश्य।।
प्रश्नकर्ता : फिर दूसरा ज्ञेय और दूसरे ज्ञाता, और पहला ज्ञाता और पहला ज्ञेय भी कहा है न? ।
दादाश्री : हाँ, ज्ञाता और दृष्टा, वे दोनों साथ में हैं।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् दो प्रकार से ज्ञाता और दृष्टा हैं, दो प्रकार से दृश्य और दो प्रकार से ज्ञेय।
दादाश्री : ठीक है। जब ज्ञेय को लेकर शुद्धता आ जाती है (जब ज्ञेय में तन्मयाकारपना छूट जाता है, ज्ञेय से छूटता है, वीतरागता से ज्ञेयों का ज्ञाता रहता है तब ज्ञेयों से खुद की शुद्धता आती-जाती है), इसलिए वापस मूल स्वरूप में आ जाता है।
प्रश्नकर्ता : यह बात ज़रा फिर से कहिए।
दादाश्री : ज्ञेय से शुद्धता आ जाती है इसलिए 'खुद' पूरा ही शुद्ध हो जाता है, पर्याय और ज्ञेय से। सोचकर देखना, यह बहुत सूक्ष्म बात है।