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(२.२) गुण व पर्याय के संधि स्थल, दृश्य सहित
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शुद्ध ज्ञान दशा में देखा शुद्ध ही
ऐसा समझना है कि ये पर्याय विनाशी हैं और ज्ञान अविनाशी है। पर्याय विनाशी चीज़ों को (विनाशी रूप में) नहीं देख सकते । (विनाशी संबंध को सही मानते हैं, नित्य मानते हैं ।) जब विनाशी को 'विनाशी है', ऐसा देखने की शक्ति आ जाती है तब वह ज्ञान कहलाता है । बाकी तो जो है उसे उसी रूप में देखता है, पुद्गल को देखता है । अन्य कुछ नहीं है। पुद्गल अर्थात् विकृत परमाणु ।
प्रश्नकर्ता : पुद्गल (विकृत परमाणु) के रूप में देखता है, यानी विनाशी रूप में देखता है, इसी प्रकार से हुआ न ?
दादाश्री : हाँ, इसी प्रकार से ।
प्रश्नकर्ता : लेकिन क्या ऐसा है कि उसमें विशेषता की तरह नहीं होता, सामान्य भाव से होता है ?
दादाश्री : मूल तो शुद्धात्मा है, उसे ऐसा कुछ देखने की पड़ी नहीं है न! केवलज्ञान ही है और वह अविनाशी है । और इसलिए कहते हैं कि जगत् निर्दोष है, वह हमारा शुद्ध दर्शन है । वह शुद्ध ज्ञान में आना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : और जब शुद्ध ज्ञान में आता है तब क्या होता है ? दादाश्री : सर्वज्ञ ! फिर कोई दावा करने का रहा ही नहीं न !
प्रश्नकर्ता : और जब शुद्ध ज्ञान में ऐसा आता है कि 'जगत् निर्दोष है', तब ये जो ज्ञेय और दृश्य हैं, वे उसे कैसे दिखाई देते हैं ?
दादाश्री : वह सब तो शुद्ध ही दिखाई देता है उसे। यह तो पर्याय-बुद्धि की वजह से ऐसा दिखाई देता है और फिर शुद्ध ही है न!
शुद्धता प्राप्त करवाए पूर्णता
प्रश्नकर्ता : हम ऐसा कहते हैं कि द्रव्य से मैं संपूर्ण शुद्ध हूँ, सर्वांग शुद्ध हूँ। ज्ञान- दर्शनादि गुणों से 'मैं' संपूर्ण शुद्ध हूँ, सर्वांग