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(२.१) परिभाषा, द्रव्य-गुण-पर्याय की
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बदलता रहेगा। उधर यदि दूसरा दृश्य आ जाए तो आत्मा दूसरा दृश्य देखेगा। ज्ञेय भी बदलते जाते हैं और ज्ञाता भी बदलते जाते हैं।
प्रश्नकर्ता : तो क्या आत्मा के पर्याय को अवस्था कहा जा सकता है?
दादाश्री : अवस्था शब्द है ही नहीं, ये सब तो पर्याय हैं लेकिन आपको यह पर्याय शब्द समझ में नहीं आएगा, इसलिए अवस्था शब्द बोलना पड़ता है।
प्रश्नकर्ता : तो क्या अवस्था शब्द ही गलत है?
दादाश्री : नहीं-नहीं! आपको समझाने के लिए अवस्था कहना पड़ता है, मोटी भाषा में। आपको पर्याय समझ में नहीं आएगा। पर्याय तो, मैं आपको बता रहा हूँ फिर भी समझ में नहीं आ रहा। वह तो बहुत ही गहरी चीज़ है, बहुत सूक्ष्म बात है।
प्रश्नकर्ता : अब थोड़ा-बहुत समझाइए न दादा। ताकि हमें समझ में आए।
दादाश्री : नहीं! वह बात बुद्धि में नहीं उतर सकती। इसलिए हम आपसे कहते हैं न कि आपको बुद्धि से जितना समझ में आए उतना समझो।
प्रश्नकर्ता : लेकिन क्या आत्मा के पर्याय ही निज अवस्था कहलाते हैं?
दादाश्री : नहीं-नहीं! सिर्फ पर्याय कहाँ से निज अवस्था हुई? वह तो, जब गुण, द्रव्य और पर्याय, तीनों साथ में हों, उसी को निज अवस्था कहेंगे। साथ में नहीं होंगे तो वह तत्त्व कहलाएगा ही नहीं। हर एक तत्त्व में तीनों गुण साथ में होते हैं। जड़ तत्त्व में, चेतन तत्त्व में, सभी में होते हैं, वर्ना वह तत्त्व कहलाएगा ही नहीं। अर्थात् हर एक तत्त्व व्यवहार से विनाशी है और निश्चय से सभी अविनाशी हैं।
ये बहुत ही सूक्ष्म बातें हैं, बहुत गहरे उतरने के बजाय तो हमें