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[२] गुण व पर्याय के संधि स्थल, दृश्य सहित भेद, बुद्धि से देखने में और प्रज्ञा से देखने में
प्रश्नकर्ता : मैं ज्ञाता-दृष्टा बनकर देखने का प्रयत्न करता हूँ लेकिन उस क्षण भी ऐसा लगता है कि बुद्धि देख रही है।
दादाश्री : ये सही कह रहे हैं। बुद्धि ही देखती है, (रियल) ज्ञाता-द्रष्टा तो वहाँ से शुरू होता है, जहाँ पर बुद्धि भी नहीं पहुँच सकती।
इन सभी ज्ञेय चीज़ों का ज्ञाता-दृष्टा 'मैं' नहीं लगता, परंतु यह बुद्धि लगती है लेकिन इस बुद्धि का ज्ञाता-दृष्टा कौन है ? आत्मा। जब 'ऐसा लगता है' तब कहा जाएगा कि दृष्टा की तरह देखा और जब 'जानते हैं' तब ज्ञाता की तरह जाना।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् क्या ऐसा है कि इस पूरे दिन की जो देखने की प्रक्रिया थी तो उसे देखने वाला जो है, उसे भी देखने वाला कोई और है ? तो प्रथम देखने वाला कौन है ?
दादाश्री : उसे उपादान कहो, बुद्धि कहो या अहंकार कहो, और उसे भी जो देखता है, वह आत्मा है। जानने वाले को भी जानता है।
प्रश्नकर्ता : तो इसमें प्रज्ञा कहाँ पर आई? दादाश्री : वही प्रज्ञा है न! मूल आत्मा तो मूल आत्मा ही है।
प्रश्नकर्ता : उस डिमार्केशन का कैसे पता चलेगा कि यह देखनाजानना' बुद्धि द्वारा है या 'खुद के' द्वारा?
दादाश्री : बुद्धि का देखना-जानना तो यों जो आँखों से दिखाई