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(२.१) परिभाषा, द्रव्य-गुण-पर्याय की
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ज्ञेय में ज्ञेयाकार परिणाम, वही पर्याय हैं, उनसे पूर्ण है और तत्त्व से शून्य है। अनंत ज्ञेयो से अनंत पर्याय उत्पन्न होते हैं, उन्हें जानने में वह पूर्ण है, लेकिन जब केवलज्ञान हो जाए तब।
तत्त्व से शून्य है, पर्याय से पूर्ण है। पर्याय अर्थात् संपूर्ण लोक प्रमाण । व्यवहार पर्यायों से लोक प्रमाण होता है। (पूरे लोक को प्रकाशमान कर सकें, उतने।)
प्रश्नकर्ता : आत्मा द्रव्य से शून्य है और पर्यायों से परिपूर्ण है, तो उसे कौन सा आत्मा समझना है?
दादाश्री : यह तो माने हुए आत्मा की बात है, व्यवहार आत्मा की। तो द्रव्य के रूप में, वह मूल वस्तु के रूप में शून्य है, कुछ भी नहीं है और पर्याय पूरे लोक को प्रकाशमान करते हैं। वे परिपूर्ण हैं।
यह रिलेटिव आत्मा के संबंध में है। यह रिलेटिव के लिए है। रियल तो शून्य भी नहीं है और पूर्ण भी नहीं है।
फर्क, रियल और रिलेटिव आत्मपर्यायों में प्रश्नकर्ता : तो आत्मा के जो पर्याय हैं, वह इस प्रतिष्ठित आत्मा की बात है या रियल आत्मा की बात है ?
दादाश्री : रियल में भी उत्पन्न होंगे और प्रतिष्ठित में भी होंगे, सभी में होंगे।
प्रश्नकर्ता : प्रतिष्ठित आत्मा के जो पर्याय उत्पन्न होते हैं और रियल आत्मा के जो पर्याय उत्पन्न होते हैं, उन दोनों में क्या फर्क है?
दादाश्री : रियल आत्मा में शुद्ध होते हैं और यह अशुद्ध होता है। यह पौद्गलिक है और वह शुद्धात्मा का, चेतन का है, शुद्ध !
__ प्रश्नकर्ता : अतः आत्मा की जो अवस्थाएँ हैं, उन्हें आप पर्याय कहते हैं?
दादाश्री : और क्या? वह अवस्था अर्थात् पर्याय उत्पन्न होते